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समर्पण

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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समर्पण

एक नन्ही सी बच्ची अपने पिता के साथ जा रही थी. रास्ते में पानी आया देख कर पिता ने बच्ची से कहा कि तुम मेरा हाथ पकड़ लो .बच्ची ने कहा कि नहीं पिता जी आप मेरा हाथ पकड़ लो. पिता ने कहा कि इस में क्या अंतर  पड़ता है तो बच्ची बोली कि अंतर पड़ता है मैं असावधानी के कारण आप का हाथ छोड़ सकती हूँ,परन्तु आप मेरा हाथ नहीं छोड़ेंगे. पिता ने बच्ची का हाथ पकड़ लिया और बच्ची निश्चिंत हो कर चलने लगी.उसे दृढ़ विश्वास था कि उस का पिता उसे गिरने व फिसलने नहीं देगा. वह उसे हर हालत में सम्भाले व थामे रखेगा.

आध्यात्मिक जगत में भी हम सब बच्चों के एक ही परम पिता परमात्मा हैं. यह पिता सर्वज्ञ, सर्वशक्ति मान न्यायकारी व दयालु हैं ,हम बच्चों में से कई बच्चे तो इस चेतन पिता की सत्ता को स्वीकार ही नहीं करते हैं अर्थात नास्तिक हैं .वे सदा न अस्ति की रट लगाए रहते हैं और उन का  मानना  हैं कि ईश्वर नाम की कोई वस्तु है ही नहीं, जो मानते हैं कि ईश्वर भी एक चेतन सत्ता नामक वस्तु है, स्वयं को आस्तिक मानते हैं, ईश्वर पर विश्वास भी  करते हैं. उस की पूजा, भक्ति व आराधना भी करते हैं. ईश्वर की अलग -अलग प्रतिमाएँ स्थापित करते हैं.  अपने -अपने कई इष्टदेव मान कर अपने ही ढंग से उन की उपासना करते हैं  यही उन की पूजा पद्धति होती है. विडम्बना तो यह है कि स्वयं को श्रदालु व ईश्वर भक्त समझते हैं परन्तु रहते भयभीत व आशंकित हैं भजन तो बोलते हैं —सौप दिया सब भार तुम्हारे हाथों में —-शब्दों के अर्थ व भाव नहीं जानते, जानते  होते तो भार सौपने के पश्चात स्वयं को हल्का अनुभव करते. प्रायः देखने में तो यही आता है कि इच्छाओं व चिंताओं के बोझ से दबे पड़े हैं.

हमारा भौतिक पिता तो अल्प ज्ञान वाला, अल्प शक्ति वाला और पूरा -पूरा न्याय भी नहीं कर पाता व साधन भी इस के पास सीमित हैं. इस पिता के साथ हमारा सम्बन्ध भी अनित्य है. दूसरी ओर हमारा परम पिता परमेश्वर इस के साथ हमारा नित्य का सम्बन्ध है. यह सम्बन्ध अनादि काल से है और अनादि काल तक रहेगा, यह पिता  कभी भी छोड़ता नही है और हम बच्चों को उत्तम -उत्तम पदार्थ बना कर दान में दे रखे हैं. अपनी सर्वव्यापकता के कारण से हम बच्चों को  सहज व सुगमता से उपलब्ध है. अपनी ही आविद्या व अज्ञानता के कारण ही हम उसे दूर समझ रहे होते हैं और कई बार आशंकित भी हो उठते हैं कि वह हमारी प्रार्थना सुन भी रहा है अथवा नही. जब कि सर्वज्ञता के गुण से गुणी पिता हमें सुन, जान व देख भी रहा है. प्रश्न यह उठता है कि नन्ही सी बच्ची के समान हम आश्वस्त और भयमुक्त क्यों नहीं हो रहे हैं. ज़रा सा इस पर  चिन्तन, मनन करें कि भूल कहाँ हो रही है और भूल को पकड़ कर सुधारने का प्रयास करे. सबसे बड़ी भूल है कि हम केवल शब्दों के जाल में अथवा कर्म -कांड में उलझे रहते हैं स्वयं को आंतरिक गहराई में उत्तार कर परमात्मा को समर्पित नहीं हो पाते, समर्पण करने में चूक जाते हैं तो कैसे भयमुक्त हो सकते हैं. श्रद्धा और दृढ़  विश्वास की कमी के कारण भी समर्पण नहीं कर पाते. समर्पण का न होना अर्थात स्वयं को पिता परमेश्वर में मन से  समर्पित न होना. बच्ची ने श्रद्धा और दृढ़ विश्वास के साथ अपना हाथ पिता के हाथों में दे दिया और स्वयं निश्चिंत हो गई कि अब उस का पिता हर परिस्थिति में उस का सच्चा साथी बना रहेगा.  स्वयं को पिता को समर्पित इस दृढ़ विश्वास से किया और भयमुक्त हो गई.

हम बच्चे भी अपने परम पिता परमेश्वर में दृढ़ विश्वास के साथ समर्पित हो जाएँ. स्वयं को अर्पण कर दें. ईश्वर के प्रति अगाध  श्रद्धा उत्पन्न करें. ईश्वर के स्वरूप को अच्छी प्रकार से जान कर उस की अति प्रेम से भक्ति अर्थात उपासना करें. अपनी समस्त क्रियाएँ ईश्वर को परम पिता मान कर उस को अर्पण कर दें. ऋषि पतंजली जी ने भी कर्मो के समर्पण के साथ ईश्वर की उपासना को ही ईश्वर प्रणिधान के अंतर्गत लिया है. ईश्वर प्रणिधान अर्थात समर्पण को ही व्यवहारिक रूप दे, केवल शब्दों में ही न उलझे  रहें. नन्ही सी बच्ची के समान हम परम पिता परमेश्वर के ही नन्हे-नन्हे बच्चे हैं. हम भी उस की दृष्टि में सहायता के पात्र बन जाएँगे व सदैव के लिए भयमुक्त रहेंगे.

राज कुकरेजा

raj.kukreja.om@gmail.com

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