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स्तुति -प्रार्थना -उपासना

चिंतन के क्षण
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“स्तुति-प्रार्थना और उपासना” यह  ऋषि दयानन्द सरस्वती जी की मानव समाज को अर्पित अनुपम भेंट है. स्तुति से ईश्वर
में प्रीति, उस के गुण-कर्म और स्वभाव  से अपने गुण- कर्म –स्वभाव  का सुधरना, प्रार्थना से निराभिमानता उत्साह और सहाय
का मिलना, उपासना से पर ब्रह्म से मेल और उस का साक्षातकार होना. ये तीनों ( स्तुति—प्रार्थना –उपासना ) एक दूसरे के
पूरक व सहयोगी हैं. इनका परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है. केवल स्तुति, केवल प्रार्थना व केवल उपासना से लाभ नहीं मिलता
है. स्तुति ,प्रार्थना,उपासना का एक और अर्थ ज्ञान, कर्म उपासना भी लेते हैं. ज्ञान

स्तुति -प्रार्थना -उपासना

“स्तुति-प्रार्थना और उपासना” यह  ऋषि दयानन्द सरस्वती जी की मानव समाज को अर्पित अनुपम भेंट है. स्तुति से ईश्वर में प्रीति, उस के गुण-कर्म और स्वभाव  से अपने गुण- कर्म –स्वभाव  का सुधरना, प्रार्थना से निराभिमानता उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से पर ब्रह्म से मेल और उस का साक्षातकार होना. ये तीनों ( स्तुति—प्रार्थना –उपासना ) एक दूसरे के पूरक व सहयोगी हैं. इनका परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है. केवल स्तुति, केवल प्रार्थना व केवल उपासना से लाभ नहीं मिलता है. स्तुति ,प्रार्थना,उपासना का एक और अर्थ ज्ञान, कर्म उपासना भी लेते हैं. ज्ञान से जानना ,कर्म से पुरुषार्थ और उपासना से प्राप्ति. जीवन के किसी भी  क्षेत्र में कोई भी मनुष्य ज्ञान, कर्म, उपासना के बिना नही रह सकता. व्यवहारिक जगत के  ज्ञान, कर्म, और उपासना ही अध्यात्मिक जगत में स्तुति -प्रार्थना उपासना कहलाते हैं . ऋषि दयानन्द जी ने हम सामान्य जनों के लिए स्तुति -प्रार्थना और उपासना के आठ मंत्रों का चयन किया है. .सभी संस्कारों के आदि में इन्ही आठ मंत्रों का पाठ किया जाता है. ये आठ मंत्र दैनिक अग्निहोत्र का अवयव नही हैं. सब शुभ, मंगल उत्तम कर्मो की सिद्धी के लिए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, चूँकि दैनिक अग्निहोत्र उत्तम एवं श्रेष्ठ कर्म है इस लिए दैनिक अग्निहोत्र में भी बड़े प्रेम से स्तुति -प्रार्थना एवं उपासना के मंत्रों का पाठ किया जाने लगा है और अब तो ये मंत्र दैनिक अग्निहोत्र का अभिन्न अंग बन गए हैं. स्तुति -प्रार्थना और उपासना करने से यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्म निर्विघ्न समाप्त होते हैं और अत्यंत कल्याण कारक बनते हैं. ऋषि दयानन्द जी ने संस्कार विधि में इन मंत्रों की व्याख्या की है, जो बहुत सरल एवं भाव पूर्ण है.

स्तुति -प्रार्थना और उपासना के मंत्रों के पाठ के साथ अर्थ करने से विशेष लाभ होता है. संस्कार विधि में उन्होंने  स्पष्ट लिखा है कि मंत्रों का पाठ और अर्थ द्व्यारा एक विद्वान् वा बुद्धिमान पुरुष ईश्वर की स्तुति -प्रार्थना -उपासना स्थिर चित्त हो कर परमात्मा में ध्यान लगा के करे और सब लोग उस में ध्यान लगा के सुनें और विचारें _____यहाँ उन का विचारें से तात्पर्य है कि अर्थ का चिन्तन -मनन करें और उस के भाव को ग्रहण करके धारण करें. भाव अर्थात भावना और भावना जो वस्तु जैसी है उस को वैसी जानना, मानना ही भावना है. भावना के साथ की गई  प्रार्थना से ही उपासक ईश्वर के  आनन्द स्वरूप में मग्न हो सकता है अन्यथा नही. तभी तो ऋषि जी उपासना के अर्थ को स्पष्ट करते हैं कि जिस कर के ईश्वर ही के आनन्द स्वरूप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है. ऋषि पतञ्जलि जी ने भी सूत्र दिया “तज्जपस्तदर्थ भावनम” अर्थात अर्थ की भावना करनी चाहिए. स्तुति -प्रार्थना -उपासना करते हुए शब्द और अर्थ गौण हो जाते हैं, भाव ही प्रधान रहता है. ऋषि जी ने जो इन मंत्रों के अर्थ किए हैं उन में भी भाव प्रधान है, इस बात का विशेष ध्यान देना चाहिए.

कई विद्वान प्रथम मंत्र “विश्वानि देव —-” मंत्र के अर्थो को भी परिवर्त्तित कर देते हैं. ऋषि प्रार्थना  करते हैं  कि दूरित दूर कर दीजिए, भद्रम हम को प्राप्त कीजिए. ये विद्वान कीजिए के स्थान पर करवा दीजिए ऐसा अर्थ कर देते हैं. मेरी तो बुद्धि में नही बैठता कि आखिर वे ऐसा क्यों करते हैं. दो -चार विद्वानों से इस पर चर्चा भी की, उन का उत्तर होता है कि कीजिए और करवा दीजिए में कोई अंतर नही पड़ता. परन्तु ऋषि जी ही आठवे मंत्र “अग्ने नय सुपथा —–” में इस का अंतर स्पष्ट कर देते हैं “अच्छे, धर्म युक्त, आप्त लोगोंके मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइए और हम से कुटिलता युक्त पाप रूप कर्म को दूर कीजिए “. यहाँ कराइए और कीजिए का अंतर स्पष्ट हो जाता है. धर्म युक्त आप्त लोगों के पास जितना ज्ञान है वहाँ तक हमारी सहायता कर सकते हैं. वे अल्पज्ञ हैं. वे हमारे अन्तःकरण के विकारों को नहीं जानते. केवल ईश्वर ही सर्वज्ञ है और जो जानता है वह ही दूर कर सकता है .ईश्वर हमारे दुर्गुण, दुर्व्यसनों और दुखों को जानता है ,हमारे लिए क्या भद्र है यह भी ईश्वर ही जानता है. इस लिए ईश्वर से ही प्रार्थना की जा सकती है अन्य किसी से भी नही.

ऋषि दयानन्द जी के भावों को न समझ कर हम मनमाने अर्थ लगाने लगते हैं. ऐसा  करना सर्वथा अनुचित है कई विद्वान् विश्वानि देव मंत्र को ऋषि जी का प्रिय मंत्र बताते रहते हैं. उन का मानना है कि वेद भाष्य करते हुए ऋषि जी ने प्रारम्भ इसी मंत्र से किया है. प्रिय-अप्रिय तो हम जैसे सामान्य जनों की सोच हो सकती है. ऋषि जी को तो वेद के सभी मंत्र अति प्रिय थे. प्रत्येक शुभ कार्य के आरम्भ में, मध्य में और कार्य की समाप्ति पर ईश्वर की स्तुति -प्रार्थना- उपासना करने से ईश्वर से बल मिलता है. ऋषि  जी भी वेद भाष्य जैसा शुभ कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व “विश्वानि देव ——” मंत्र से स्तुति- प्रार्थना -उपासना करते हैं कि उन का अनुष्ठान वेद भाष्य में कोई बाधा न आए. किसी भी प्रकार का दुःख (आध्यत्मिक,आधिभौतिक और आदिदैविक ) न आए. उन की यह भावना ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में जब वे इसी मंत्र से प्रार्थना करते हैं स्पष्ट होती है. वे प्रार्थना करते हैं “आप की कृपा के सहाय से सब विघ्न हम से दूर रहें कि जिस से इस वेद भाष्य के करने का हमारा अनुष्ठान सुख से पूरा हो. इस अनुष्ठान में हमारे शरीर में आरोग्य, बुद्धि, सज्जनों का सहाय ,चतुरता और सत्य विद्या का प्रकाश सदा बढ़ता रहे. इस भद्र स्वरूप सुख को आप अपनी सामर्थ्य से ही हम को दीजिए, जिस कृपा के सामर्थ्य से हम लोग सत्य विद्या से युक्त जो आप के बनाए वेद हैं उन के यथार्थ अर्थ से युक्त भाष्य को सुख से विधान करें”. अतः अति आवश्यक है कि ऋषि जी के किए अर्थो के भावों को समझें.

हम सभी स्तुति प्रार्थना और उपासना करते हैं और कई बार लाभ व उपलब्धि मिलती न देख कर निराश भी हो जाते हैं. संशय व भ्रम में भी पड़ जाते हैं कि ईश्वर हमारी प्रार्थना सुन  भी रहा है या नहीं? ईश्वर तो सुन रहे हैं परन्तु हमे ही सुनाना नहीं आता है. एक लौकिक माँ भी अपने नन्हे शिशु के रोने की आवाज़ को समझ सकती है कि सचमुच बालक भूख से रो रहा है या ऐसे ही रो रहा है. ईश्वर तो हमारी जगत जननी माता है. क्या वे हमारी सच्ची भूख को नहीं पहचानती? सच्ची भूख  है हृदय से की गई  भावपूर्ण प्रार्थना. शाब्दिक  प्रार्थना को ईश्वर स्वीकार नहीं करते. भावना के साथ कर के देखे तो सही, झट से स्वीकार कर ली जायगी ऐसा अपने मन में दृढ़ विश्वास रखें. उपासक की तन्मयता से व पूर्ण भाव से की गई प्रार्थना को ईश्वर स्वीकार न करे ऐसा हो ही नही सकता.  नत्थासिंह जी ने इसी भाव पूर्ण भक्ति को अपने गीत में पिरोया है.गीत के बोल हैं

“सुख से प्रियतम की हो रही हो बसर, दर्द तेरे की हो न उस को खबर.

ऐसा अंधेर हो नही सकता, उस का दीदार हो नही सकता, तू अगर खुद को खो नही सकता.”

राज कुकरेजा

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