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प्रार्थना – पुरुषार्थ (भाग १)

चिंतन के क्षण
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प्रार्थना – पुरुषार्थ (भाग १)
एक आध्यात्ममिक गुरु अपने शिष्यों को प्रार्थना के विषय में समझा रहे थे कि व्यक्ति की मनः स्थिति व आध्यात्मिक अवस्था के अनुसार प्रार्थना को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया जा सकता है. किसी के लिए प्रार्थना स्वार्थपूर्ति का अमोघ साधन है, किसी के लिए प्रार्थना रोग की अचूक औषधि। किसी के लिए प्रार्थना में प्रत्येक समस्या का समाधान निहित है तो किसी के लिए प्रार्थना प्रत्येक भँवर का निश्चित तरण है. कई भक्तों के लिए प्रार्थना भाव की सम्पादिका है, तो कई साधकों के लिए ईश्वर के साथ संभाषण की कला. प्रार्थना शब्द में ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अर्थ’ धातु से प्रार्थना शब्द सिद्ध होता है, ऐसा वैयाकरणों का मत है.’प्र’ का अर्थ है–प्रकर्षेण अर्थात तेज़ी से, उत्कंठा से, तीव्रता से और अर्थना का अर्थ है चाहना. कई विद्वानों का मानना है कि प्रार्थना शब्द की उत्पत्ति ‘प्रार्थ ‘धातु’ से हुई है जिस का अर्थ होता है अपने से विशिष्ट से दीनता पूर्वक कुछ माँगना अर्थात याचना करना। विचार पूर्वक देखा जाए तो चाहना और याचना दोनों से ही प्रार्थना का यथार्थ प्रयोजन है. याचना में इच्छा शक्ति अथवा संकल्प बल का सदुपयोग नहीं हो पाता. याचक को केवल अपनी याचना अथवा मांग प्रस्तुत करने के अतिरिक्त और कुछ करना नहीं होता. परन्तु चाहने में जहाँ प्रभु से सहायता की इच्छा की जाती है, वहां स्वयं भी पूर्ण पुरुषार्थ करना पड़ता है. याचना में जहाँ मन में हीन भाव उत्पन्न होते हैं वहां चाहने में आत्म-गौरव, आत्म-तोष तथा आत्म विश्वास जैसी भावनाएं जागृत होने लगती हैं. इस लिए प्रार्थना का अर्थ कई लोग केवल चाहना ही करते हैं तो दूसरी ओर दूसरे पक्ष वाले प्रार्थना को केवल याचना ही स्वीकार करते हैं. वास्तव में देखा जाए तो प्रार्थना ही याचना है, प्रार्थना ही चाहना भी है. कार्य की सिद्धि में जो अभिमान आदि आ जाते हैं, प्रार्थना से उसका नाश हो जाता है क्योंकि कार्य की पूर्णता तो परमेश्वर के सहाय से ही हुई है, इस परिज्ञान से आत्मा में नम्रता और निरभिमानता आ जाती है.
मन में इस जिज्ञासा का उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि यह विशिष्ट कौन हैं, जिनसे प्रार्थना की जा सकती है. इस जिज्ञासा का समाधान ऋषि दयानन्द सरस्वती जी आर्योद्देश्यरत्नमाला में स्पष्ट करते हैं. वे लिखते हैं कि ‘प्रार्थना’ अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरांत उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिए परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य का सहाय लेने को प्रार्थना कहते हैं. अर्थात श्रेष्ठ कर्मों की सिद्धि के लिए सर्व प्रथम अपना पूर्ण पुरुषार्थ कर लें, इसके बाद भी यदि न्यूनता है तो उसकी पूर्णता हेतु परमेश्वर से विज्ञान आदि के लिए याचना करने का नाम प्रार्थना है, अथवा जो उसे पूर्ण कर सके ऐसे मनुष्य की सहायता प्राप्त करने के लिए याचना करने का नाम प्रार्थना है. अतः परमेश्वर और अपने से अधिक सामर्थ्य रखने वाले विशिष्ट हैं.
लौकिक जगत में लौकिक सिद्धि के लिए तो अपने से अधिक सामर्थ्य वाले से प्रार्थना की जा सकती है परन्तु आध्यात्मिक जगत में तो केवल प्रभु के चरणों में की गई याचना ही वास्तव में प्रार्थना कही जाती है। कर्म करने वाले की ही प्रार्थना फलीभूत होती है ईश्वर उन की सहायता करते हैं, जो अपनी मदद स्वयं करते हैं।(God helps those who help themselves ) पुरुषार्थी की ही ईश्वर सहायता करता है. इसको इन रोचक एवं शिक्षा प्रेरक प्रसंगों से अच्छी प्रकार समझ में आ जाती है। एक व्यक्ति प्रति दिन सुबह-सुबह पूजा स्थल जाता और अपने इष्ट देव की आराधना करता और हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता कि हे ईश्वर ! तुम ही मेरा सहारा हो। मैं ग़रीबी भरे जीवन से तंग आ चुका हूँ इसलिए मेरी लाटरी लगवा दें, पर उसकी लाटरी नहीं निकली। अब उसने अपनी प्रार्थना के शब्द बदले – ‘हे ईश्वर अब मैं एक नेक इन्सान बन गया हूँ, सब से अच्छा व्यवहार करता हूँ, कृपया मेरी लाटरी निकलवा दीजिए। लेकिन इस बार भी वह लाटरी टिकट नहीं जीत पाया. तो उसने अपनी प्रार्थना के शब्द बदले कि हे ईश्वर ! मुझ पर दया करो. मेरी प्रार्थना का फल दो. मुझ गरीब को यूँ मत छोडो. अब मैं एक नेक इंसान भी बन गया हूँ और सबके साथ अच्छा व्यवहार भी करता हूँ, फिर भी आप मेरी सहायता लाटरी लगवाने में क्यों नहीं कर रहे हैं. तभी ईश्वर की वाणी गूंजी – “पुत्र, तुम मुझे चैन लेने दो.प्रार्थना ही प्रार्थना किये जा रहे हो, कम से कम एक लाटरी का टिकट तो लेने का श्रम करो. याद रखो कि क्षमता अनुसार कर्म करने वाले की ही प्रार्थना स्वीकार की जाती है”. ऐसा ही एक रोचक प्रसंग एक भक्त का है जो ध्यान लगाए जा रहा था तभी एक गड्ढे में गिर पड़ा। भक्त ने गड्ढे के अंदर ही ध्यान लगाना शुरु कर दिया. ध्यान की मुद्रा में बैठे भक्त की कब आँख लग गई, इस का उसे पता ही नहीं चला. आँख खोली तो समय देखा दोपहर ढलने को थी. ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि आप तो भक्त वत्सल कहलाते हो, अपने भक्तों के उद्धार करने वाले हो. मुझ भक्त से ऐसी क्या भूल हो गई कि कब से पुकार रहा हूँ कि तुम्हारा भक्त गढ्ढे में गिरा पड़ा है, इसे आ कर निकालो. इस प्रकार प्रार्थना करता जाता और रोता भी जाता, साथ-साथ ईश्वर से शिकायत भी करता जाता कि तुम सचमुच में बड़े ही निर्मोही हो, अपने भक्त पर तुम्हे थोड़ी भी दया नहीं आ रही है. गिले-शिकवे कर ही रहा था कि उसे ईश्वर ध्वनि सुनाई दी कि “मेरे प्यारे भक्त मैंने तुम्हें गढ्ढे से निकालने के लिए कितने ही लोगों को भेजा पर तुमने तो उन की सहायता तक नहीं ली और उल्टा मुझे ही दोष दे रहे हो कि मैंने ही तुम्हे गढ्ढे से नहीं निकाला. मैं भी इच्छा शक्ति और श्रम शक्ति देख कर ही मदद करता हूँ”। अब भक्त ने अपनी भूल सुधारी और ज़ोर से मदद के लिए आवाज़ लगाई. पास गुज़र रहे एक व्यक्ति ने उसकी आवाज़ को सुन कर उसे गड्डे से बाहर निकलने में सहायता की। ऐसी घटनाएँ सुनने में हास्यास्पद लगती हैं, अवैदिक लगती हैं, पर एक गहरा संदेश देती हैं. सच ही तो कहा है कि राह पर चलने वाले को ही राह दिखाई जाती है। नेपोलियन ने बहुत सुन्दर कहा था-‘ गीले बारूद में तो ईश्वर भी आग नहीं लगा सकता अर्थात अपने पुरुषार्थ द्वारा बारूद को सूखा रखो’ ठीक इसी तरह सावधानी, लगन, परिश्रम से और क्षमता अनुसार कर्म करें और साथ ही प्रार्थना भी।

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