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प्रार्थना-पुरुषार्थ (भाग २)

चिंतन के क्षण
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प्रार्थना-पुरुषार्थ (भाग २)
ऋषि दनायानन्द सरस्वती जी सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम सुमुल्लास में लिखते हैं कि पुरुषार्थ करते हुए पुरुष का सहाय जैसे दूसरा करता है, वैसे धर्म से पुरुषार्थी का सहाय परमेश्वर भी करता है। जैसे काम करने वाले को भृत्य रखते हैं, अन्य को नहीं। देखने की इच्छा रखने वाले और नेत्रवाले को ही दिखलाते हैं। कई बार ऐसा भी सुनने में आता है कि यदि फल पुरुषार्थ से ही मिलता है तो व्यर्थ में प्रार्थना क्यों की जाए क्योंकि पूर्ण पुरुषार्थ करने के बाद ही प्रार्थना फलीभूत होती है तो यह फल पुरुषार्थ का ही हुआ न कि प्रार्थना का। उनका ऐसा मानना उचित नहीं है। निश्चय से फल तो पुरुषार्थ का ही है प्रार्थना का फल भी इसके साथ ही जुड़ा हुआ है। प्रार्थना से ईश्वर की ओर से निरभिमानता, उत्साह और सहायता भी मिलती है। व्यक्ति का आत्मिक बल और मानसिक बल इतना बढ़ जाता है कि पहाड़ जैसे दुःख को भी राई के समान समझ कर हसंते-हसंते सहन कर लेता है. दूसरी ओर प्रार्थना न करने वाला राई के समान दुःख को पहाड़ जैसा दुःख बना लेता है. दो समान स्तर के विद्यार्थी इन में से एक प्रार्थना में विश्वास करने वाला और दूसरा केवल पुरुषार्थ में दृढ़ विश्वास रखने वाला, पूर्ण पुरुषार्थ के साथ अपनी परीक्षा देते हैं, लेकिन परिणाम संतोष जनक ही नहीं अपितु आशा के विपरीत आते हैं. दूसरा विद्यार्थी जो प्रार्थना में विश्वास नहीं रखता इस परिणाम को सहजता से नहीं ले पाता. हताश व निराश हो जाता है। अत्यन्त विचलित हो जाता है। ऐसी अवस्था में मानसिक सन्तुलन भी खो देता है। उसे पूरा जीवन ही अंधकारमय लगने लगता है। कई बार आत्महत्या भी कर लेता है। आत्महत्या के कितने ही समाचार पढ़ने को मिलते रहते हैं। दूसरी ओर ईश्वर से प्रार्थना करने वाला इस असफलता को एक चुनौती के रुप में स्वीकार करता है। आत्म विश्लेषण करता है, भूल व अपनी की गई त्रुटियों को पकड़ने की कोशिश करता है और ईश्वर से प्रार्थना भी करता है कि ईश्वर मुझे बल दो कि इस बार मेरे पुरुषार्थ में किसी भी प्रकार की न्यूनता न रहने पाए। प्रार्थना करने वाला जीवन में मिलने वाली सफलता और असफलता में, जय-पराजय अर्थात हर काल में सम अवस्था बनाए रखता है। प्रार्थना की शक्ति को कई बड़े-बड़े सुप्रसिद्ध चिकित्सक भी स्वीकारने लगे हैं. उनका मानना है कि जो रोगी प्रार्थना में विश्वास करते हैं, उनमे आसध्य रोग से भी लड़ने की इच्छा शक्ति होती है. नोबल पुरस्कार विजेता विश्व विख्यात वैज्ञानिक एवं सर्जन डाo अलेकिस्स केरल का कथन इस तथ्य को और मजबूत करता है. उनका कहना था-“मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा है कि प्रार्थना करने वाले रोगी कैंसर और टी.बी, जैसे रोगों से रोगी मुक्त हो गये”.शायद इसीलिये अब प्रत्येक चिकित्सालयों में मन्दिर या पूसा स्थल होता है. साथ ही दीवारों पर लिखा होता है- ‘हम केवल इलाज करते हैं, स्वस्थ ईश्वर करता है.(we treat, God cures)
ऋषि दयानन्द जी लिखते हैं कि व्यक्ति जैसी प्रार्थना करता है, उसको वैसा ही पुरुषार्थ भी करना चाहिए अर्थात जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की प्रार्थना करे, उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना पुरुषार्थ भी अवश्य ही किया करे। अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है। जब लोग कई बार उन लोगों की प्रार्थना को निष्फल होती देखते हैं, जो कर्म शील होते हैं, तो उन की पुरुषार्थ के प्रति श्रद्धा कम होने लगती है. यह तो उन की अज्ञानता है जो ऐसा सोचते हैं. हम तो अल्पज्ञ हैं, नहीं जान सकते कि प्रार्थना निष्फल क्यों हुई है, परन्तु ईश्वर ही जानते हैं कि प्रार्थना में क्या भूल है और ईश्वर ही जानते हैं कि हमारी प्रार्थना को फलीभूत करना हमारे हित में है या अहित में, उसी के अनुसार निर्णय लेते हैं. ऋषि दयानन्द जी लिखते हैं कि ऐसी प्रार्थना कभी न करनी चाहिए और न ही परमेश्वर उसको स्वीकार करता है जैसे’ हे परमेश्वर!आप मेरे शत्रुओं का नाश, मुझको सबसे बड़ा, मेरी ही प्रतिष्ठा और मेरे आधीन सब हो जाएँ. ऐसी मूर्खता पूर्ण प्रार्थनाओं को भी ईश्वर स्वीकार नहीं करता -हे परमेश्वर ! आप हमको रोटी बना कर खिलाइए, मकान में झाडू लगाइए, कपड़े धोइए और खेती बाड़ी भी कीजिये’.परमेश्वर की आज्ञा तो सदा पुरुषार्थ करने की है.परमेश्वर की आज्ञा पालन में सुख है.
प्रार्थना क्या करें अर्थात प्रार्थना में क्या मांगे–यह प्रार्थना विज्ञान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है. हम प्रभु से धन, सम्पति, सुख के साधन, उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु, बल, बुद्धि, यश, विजय आदि सभी कुछ मांग सकते हैं एवं मांगते भी रहते हैं किन्तु यह सब वस्तुएं ऐसी हैं कि जिनसे मनुष्य की कभी तृप्ति नहीं होती है. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी लिखते हैं कि “जब-जब परमेश्वर की प्रार्थना करनी योग्य हो, तब-तब अपने लिए वा और के लिए समस्त शास्त्र के विज्ञान से युक्त उत्तम बुद्धि ही मांगनी चाहिए, जिसके पाने पर समस्त सुखों के साधनों को जीव प्राप्त होते हैं.” मेधा बुद्धि ही हमारे प्रसुप्त विवेक को जागृत करती है और हमें सांसारिक प्रलोभनों से ऊपर उठाती है. विवेकशील व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं की अपेक्षा प्रभु की प्रसन्नता पाने को अधिक उत्सुक रहता है. अतः ईश्वर से प्रतिदिन सद्बुद्धि की प्रार्थना करें.
ओ३म् भूर्भुव: स्व: । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो न: प्रचोदयात् ।
ओ३म् विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव।यद् भद्रन्तन्न आसुव।।
राज कुकरेजा
मो० 09034566291
e-mail-raj.kukreja.om@gmail.com

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