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सत्यार्थ प्रकाश का ही स्वाध्याय क्यों ?

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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अद्भुत प्रतिभा के धनी मुनिवर गुरुदत्त ने महर्षि दयानन्द जी की अमर कृति सत्यार्थ प्रकाश के विषय में लिखा है “मैंने सत्यार्थ प्रकाश को अठारह बार पढ़ा और जितनी बार पढ़ा उतनी ही बार यह अनुभव हुआ कि मैं नया ग्रन्थ पढ़ रहा हूँ. हर बार ग्रन्थ का नया रूप सामने आता रहा और मैं उस में खो जाता. सत्यार्थ –सिन्धु का अवगाहन करता रहा, गोते लगाता रहा और अनेक मूल्यवान और आभावान रत्न चुनता. जो भी व्यक्ति इस ग्रन्थ का अवगाहन करेगा उसे अमूल्य मणि-मुक्ता उपलब्ध होंगे. यह ग्रन्थ इतना मूल्यवान है कि मैं अपनी सम्पूर्ण सम्पति को इस के सामने तुच्छ समझता हूँ ”
डाo राम प्रकाश जी सत्यार्थ विमर्श के प्रारम्भ में ही लिखते हैं कि “”सत्यार्थ प्रकाश कालजयी ग्रन्थ है. यह ऋषि दयानन्द जी की मान्यताओं और सरोकारों का प्रतिनिधि है. इस ग्रन्थ ने नव जागरण को नेतृत्व दिया है. यह ग्रन्थ भारत की बौद्धिक सम्पदा का सारभूत है, यह वेदादि की अंतर्ध्वनि का घोष है. यह धर्म का सम्बल है, कार्य का भी सम्बल है पर धर्म के नाम पर धंधा चमकाने वालों के लिए यह वज्र है.”
ऋषि दयानन्द सरस्वती जी की मानव जाति को सत्यार्थ प्रकाश एक अनुपम भेंट है. सत्यार्थ प्रकाश का सम्बन्ध केवल आर्य-समाज के साथ नहीं है अपितु मनुष्य मात्र से है. उन का उद्देश्य तो केवल सत्य अर्थों का प्रकाश करना है. उन के अनुसार सत्य का प्रकाश करनेहारा तो ईश्वर है जो इस हेतु सृष्टि के आरम्भ में वेद का ज्ञान दिया करता है. समय के साथ सत्य के अर्थों पर आवरण पड़ गये हैं, वे तो केवल उस आवरण को हटा रहे हैं. इस लिए नाम रखा सत्यार्थ प्रकाश. यह ईश्वर एवं वेद के प्रति उन की गहन आस्था की अभिव्यक्ति है, साथ ही विभिन्न विषयों पर उन के चिंतन का सार है. इसी लिए तो इसे सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक ग्रन्थ कहा गया है.
स्वामी दीक्षा नन्द जी सत्यार्थ प्रकाश को कल्पतरु तो श्री यशपाल आर्य बन्धु इसे सत्यार्थ दिग्दर्शन मानते हैं जिस ने भी सत्यार्थ सिन्धु में गोता लगाया वे ही ज्ञान रूपी रत्नों को पा कर धन्य हो उठे. सच ही तो कहा है कि जिन खोजा तिन पाईया. इन ऋषि भक्तों के ये वचन मेरी भी प्ररेणा के स्रोत्र बने. मेरे अंदर भी इस सत्यार्थ सिन्धु में गोते लगाने की तीव्र इच्छा हुई और मैंने पढ़नें का प्रयास किया परन्तु आरम्भ में मेरे पल्ले कुछ न पड़ते देख निराश व उदासीन भी हो जाती परन्तु सत्यार्थ प्रकाश का आकर्षण तो बना ही रहता. एक बार सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका को जब समझने का प्रयास कर रही थी तो ऋषि दयानन्द जी ने जो गीता का श्लोक “यत्तदग्रे विषमिव परिणामे sमृतोपमम” और इस का जो अभिप्राय समझाया कि जो-जो विद्या और धर्म प्राप्ति के कर्म हैं, वे प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात अमृत के सदृश होते हैं. मुझे ऐसा लगने लगा मानो ऋषि मुझे ही सम्बोधित कर के कहे रहे हैं- देखो! हिम्मत मत हारो, ब्रह्म विद्या अति सूक्ष्म विद्या है और अत्यंत पुरुषार्थ साध्य है. इस को पढो मत इस का स्वाध्याय करो. प्रथम कठिन है तो क्या हुआ बाद में इस में रस ही रस है. मेरी भी बुद्धि में यह बात बैठ गई कि पढ़े तो किस्से-कहानी, उपन्यास और सस्ते साहित्य जाते हैं. स्वाध्याय तो आर्ष ग्रन्थों का किया जाता है अर्थात इसे अपने हृदय की गहराई तक उतारा जाता है. बस फिर क्या था प्रथम समुल्लास जिस में ईश्वर का मुख्य नाम ओ३म् और अन्य गौण नाम ईश्वर के गुण-कर्म-स्वाभाव के अनुरूप हैं, जिन्हें समझने में काफी प्रयास से भी नहीं समझ पाती थी, अब थोड़ी-थोड़ी समझ में आने लगे. इस से पूर्व मुझे धातु, प्रत्यय, और उपसर्ग ही नहीं आते थे कारण कि अपने अध्ययन काल में मैंने हिंदी को गौण विषय लिया हुआ था, जिस का अब खेद भी होता है. सत्यार्थ प्रकाश के स्वाध्याय काल में जो मैं समझ न पाती उसे रेखांकित करती और जब भी कभी अवसर मिलता विद्वानों से स्पष्टिकरण कर लेती. मैं स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक जी ( रोजड) की अत्यंत आभारी हूँ जिन्होंने बड़े धैर्यपूर्वक मेरी शंकाओं का समाधान किया और अब भी ई-मेल द्वारा करते रहते हैं. परोपकारिणी सभा ने विद्वानों के प्रवचन, दर्शन व उपनिषदों को वेब साईट पर अप लोड करके हम जैसे सामान्य लोगों पर अति उपकार का कार्य किया है. इन के प्रवचन वैदिक सिंद्धांतो पर ही होते हैं इन से सत्यार्थ प्रकाश को समझना सरल व सुगम हो जाता है. परोपकारिणी सभा के इस उपकार को कभी भी नहीं भुलाया जा सकता है. विशेषता श्री धर्मवीर जी के अध्यात्मिक प्रवचन, आचार्य सत्यजित जी का केन उपनिषद और स्वामी विश्वांग जी का योग दर्शन जिसे उन्होंने स्काईप के माध्यम से अध्यापन कराया है. इन की भी सदा आभारी रहूंगी .
ऋषि दयानन्द जी सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में लिखते हैं कि वैद्य और औषध की आवश्यकता रोगी के लिए है. आर्य समाजों की कम होती उपस्थिति का यह अर्थ नहीं लिया जी सकता कि अब लोग रोगी नहीं हैं, अपितु अब वहां वैद्य ही नहीं हैं, अधिकांश अधिकारीगण, संरक्षक, मंत्री और प्रधान न तो ऋषि दयानन्द जी को समझ सके हैं, न ही उन के सिद्धांतों, मंतव्यों को और न ही सत्यार्थ प्रकाश को जानते, समझते हैं. जिन दो चार ने सत्यार्थ प्रकाश को यदि पढ़ भी लिया है तो व्यवहार में नहीं ला पाते हैं. सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय न करने से कितनी हानि हो रही है उसे ये लोग नहीं समझ पा रहे हैं. हमारे ही कई बहन-भाई दूसरे मत-मतान्तरों में जा रहे हैं. कई जो स्वयं को आर्य-समाजी समझते हैं और सोचते हैं कि वे आर्य समाज का प्रचार कर रहे हैं, परन्तु स्वयं पाखंड, अंध विश्वासों में, फलित ज्योतिष में, ग्रहों के प्रभाव में फसे हुए हैं. अपने बच्चों की जन्म-पत्री बनवा रहे हैं और उन के विवाह गुण-कर्म-स्वभाव अनरूप न करवा कर जन्म-पत्री के गुणों को मिलवा रहे हैं. अब तो अधिकांश मंगलीक ग्रह के चक्कर में भी फसे हुए हैं. इन्हीं लोगों को ऋषि रोगी मानते हैं. ऋषि जी रोगी और निरोगी की परिभाषा समझाते हुए एकादश समुल्लास में लिखते हैं कि विद्यावान नीरोग और विद्या रहित अविद्या रोग से ग्रसित रहता है. उस रोग को छुड़ाने के लिए औषध सत्य विद्या और सत्योपदेश ही होता है. ऋषि को न समझ, जो स्वार्थ बुद्धि के हैं, वे केवल अपनी स्वार्थ पूर्ति करने के दूसरा कुछ भी नहीं जानते हैं. दूसरी ओर विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़ कर अनेक विधि दुःख की वृद्धि और सुख की हानि हो रही है. ये स्वार्थी विद्वान भी देश काल के अनुकूल अपने पक्ष की सिद्धि के लिए अपनी आत्मा के ज्ञान के विरुद्ध भी कर रहे हैं.
अन्य मत मत-मतान्तर के लोग अपनी संकीर्ण व संकुचित बुद्धि के कारण आर्य समाजी उसे मानते हैं जो मूर्ति पूजा नहीं करता, हवन करता है. बड़ी विडम्बना है कि अब अधिकांश आर्य समाजी भी हवन कर लेने मात्र से आर्य समाजी बने हुए हैं. आज कल महिलाओं में हवन किटटी का बहुत प्रचलन है. वहां भी कार्यक्रम हवन और भजनों तक ही सीमित है. वहां भी सत्यार्थ प्रकाश की बात तक नहीं की जाती, कारण कि जब स्वयं ही नहीं समझी हैं तो दूसरों को क्या समझा पाएंगी. सत्यार्थ प्रकाश को न समझने का परिणाम है कि छोटी-छोटी बातों में अपशगुन मानने लगी हैं और हर समय अनिष्ट की आशंका से भयभीत भी रहती हैं. ऋषि सप्तम समुल्लास में लिखते हैं कि भय उसे होता है जो विपरीत बुद्धि रखता है अर्थात जो ईश्वर से डरता है वह और किसी से नहीं डरता. ऋषि के आशय को न समझ कर हम टोनें-टोटकों में उलझ जाते हैं. आज कल लोग जब घर बनवाते हैं तो देखा-देखी उस पर नजर पट्टू लगा लेते हैं और संतुष्ट हो जाते हैं कि अब उन के नवनिर्मित घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगेगी. देखने में तो ये बहुत छोटी-छोटी बातें लगती हैं परन्तु परिणाम अत्यंत भंयकर होता है. ये छोटी सी दिखने वाली बातें ही व्यक्ति को मानसिक रूप से इतना निर्बल बना देती है कि धूर्त लोग ऐसे लोगों को अपने चंगुल में फसा लेते हैं. आजकल समाचार पत्र ऐसे ही समाचारों से भरे मिलते हैं. महिलायें इन धूर्तो के बहकावे में फस कर इन्हें स्वेच्छा से अपने आभूषण तक उतार कर दे आती हैं. ऋषि दयानन्द जी सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय समुल्लास में लिखते हैं कि शैशव काल से ही माता-पिता ऐसी शिक्षा करें कि बालक इन धूर्तो की बातों में न फसें. तृतीय समुल्लास में सत्यासत्य की परीक्षा पांच प्रकार से करनी होती है ताकि सत्य को ग्रहण करने की और असत्य के त्याग करने की समझ आ सके. इस लिए ऋषि जी लिखते हैं कि बच्चों को बचपन में ही सुसंस्कार मिलने चाहियें.
आजकल हम देखते हैं कि लोगों की भीड़ दूसरे मत-मतान्तरों की ओर है. इस सब का यह अभिप्राय नहीं है कि दूसरे मत-मतान्तरों की ओर जो भीड़ बढ़ रही है, वहां वे लोग नीरोग अर्थात उन्हें वहां सत्यविद्या और सत्य उपदेश की उपलब्धि हो रही है. वहां तो भेडचाल चल रही है .स्वामी जी के अनुसार अंधे के पीछे अंधे चलें तो क्यों न दुःख पावें . इन लोगों के न तो सिद्धांत हैं और न ही ये शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म और शुद्ध उपासना की बात करते हैं. इन के बारे में तो सत्य ही कहा है कि “स्वार्थी दोषं न पश्यति” ये स्वार्थी लोग अपने काम सिद्धि करने में दुष्ट कामों को श्रेठ मान दोष को नहीं देखते. यद्यपि मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने हारा हैः, तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए हठ, दुराग्रह और अविद्या आदि दोषों की उपेक्षा कर रहे हैं. ऋषि का यह कथन कितना सत्य है, इस का प्रत्यक्ष प्रमाण तब मिला जब एक देवी के मन्दिर एक सज्जन ने पूजारी से देवी के दर्शन के लिए अनुनय विनय की तो पूजारी के मुख से सत्य ही निकला कि वह वहां चालीस सालों से बैठा है तो दर्शन नहीं कर सका, उसे कैसे करवा सकता है. इस लिए ऋषि लिखते हैं कि. सब की आत्मा सत्यासत्य को जानने वाला होता है परन्तु जिन झूठे सिंद्धांतों से प्रसिद्धि स्थापित की होती है उसे ये स्वार्थी लोग बनाये रखना चाहते हैं.
बौद्धिक, तार्किक तथा वैज्ञानिक चिंतन करने वालों के लिए सत्यार्थ प्रकाश उपयोगी एवं ज्ञान वर्धक सिद्ध होता है. स्वाध्याय करने से मनुष्य में सत्य का ज्ञान होता है और ज्ञान-विज्ञानं में रूचि भी उत्पन्न होती है. अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि भी सत्यार्थ प्रकाश के स्वाध्याय से हो सकती है. देश में अशांति, अनीति और अराजकता का बोलबाला है. देश की राजनीति निम्न स्तर की अर्थात निकृष्ट हो चुकी है तो आर्य समाज भी अछूता नहीं है. पूरा देश ही रोगी है. ऋषि दयानन्द जी के अनुसार वैद्य में तीन गुण होने चाहिए. प्रथम रोगी देश कौन सा है? दूसरा रोग क्या है? तीसरा रोग की औषध क्या है? यह तो सर्व विदित हो गया कि रोगी देश आर्यवर्त (भारत) है. इस का रोग और रोग की औषध सत्यार्थ प्रकाश है. बड़े हर्ष की बात है कि देश को इस रोग से छुडाने के लिए हमारे कुछ विद्वान प्रयत्नशील हो रहे हैं. अजमेर में आचार्य सत्यजित जी व उन के सहयोगी आचार्यो ने अधिक से अधिक लोगों तक सत्यार्थ प्रकाश पहुँचाने का दृढ़ संकल्प लिया है. ताकि लोगों में सत्यार्थ प्रकाश के प्रति स्वाध्याय की रूचि बने. लोगों से भी निवेदन है कि इन आचार्यों जी के उद्देश्य को समझे, सत्यार्थ प्रकाश का मनन करें और इसे अपने जीवन में, अपने व्यवहार में उतारें ताकि अन्यों पर भी प्रभाव पड़े, न कि जैसे-तैसे परीक्षा पास करना. इसके साथ हमारा भी कर्तव्य बनता है कि इन आचार्य लोगों का तन, मन व धन से सहयोग करें.
अंत में परम पिता परमात्मा से प्रार्थना है—–धियो यो नः प्रचोदयात्
हे सविता देव! आप हमारी बुद्धियों को सत्यार्थ प्रकाश के स्वाध्याय की ओर प्रेरित करें.
राज कुकरेजा/करनाल

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