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लेखन-कार्य की प्रेरणा

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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लेखन-कार्य की प्रेरणा
ईश्वर की अपार कृपा है कि मेरी आर्ष साहित्य के स्वाध्याय की रूचि बनी. इस से पूर्व मैं केवल समाचार पत्र और हल्के-फुल्के उपन्यास आदि पढ़ लेती थी और इसी को ही स्वाध्याय समझ कर संतुष्ट रहती थी. ईश्वर प्रेरणा से आर्यवन रोजड़ जाने का सुअवसर मिला. वहां जाने का सब से बड़ा लाभ यही हुआ कि स्वाध्याय के ठीक अर्थो की जानकारी मिली. हमारे महान ऋषियों ने विद्या प्राप्ति के लिए एक विशिष्ट पद्धति-शैली का निर्देश किया है. विद्या चार प्रकार से आती है- आगम काल, स्वाध्याय काल, प्रवचन काल और व्यवहार काल. आगम काल उस को कहते हैं जब मनुष्य पढ़ाने वाले से सावधान हो कर ध्यान पूर्वक सुने. स्वाध्याय काल पढ़ी-सुनी विद्या पर विचार करे. प्रवचन काल दूसरों को पढ़ावे. व्यवहार काल-विचारी-पढ़ाई विद्या को आचरण में लावे. आगम काल और स्वाध्याय काल तो मेरे अपने अधिकार में हैं. इन दोनों के लिए मैं परोपकारिणी सभा का अपने ह्रदय की गहराई से धन्वाद करती हूँ कि इन्होंने कम्पूटर पर अपनी वेब साईट पर उपनिषदों, दर्शन-शास्त्रों व विद्वानों के प्रवचनों को अप लोड कर दिया और साथ ही स्काईप के माध्यम से दर्शनों को पढ़ाने की भी व्यवस्था कर दी. घर बैठे दर्शनों को पढ़ने का सुअवसर मिल गया. कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उपनिषद, योग दर्शन, सांख्य दर्शन, न्याय दर्शन एवं वैशेषिक दर्शन पढ़ सकेंगे.
प्रवचन काल जिस का अर्थ है कि स्वयं पढ़ कर अन्यों को पढ़ाना, प्राप्त को बांटना. जो सुनता है पर सुनाता नहीं, पढ़ता है पर पढ़ाता नहीं, सीखता है पर सीखाता नहीं उस का परिणाम यह होता है कि उस का ज्ञान स्थायी और उपकारी नहीं होता. मेरी इतनी तो योग्यता है नहीं कि मंच पर बैठ कर प्रवचन कर सकूं. मेरा व्यक्तिगत विचार है कि मंच पर प्रवचन करने का अधिकार उसको होना चाहिए जिस ने ऋषि दयानन्द सरस्वती जी के ग्रन्थों का और दर्शन शास्त्रों का विधिवत अध्ययन किया हो और अपने विषय पर इतनी योग्यता प्राप्त कर ली हो कि श्रोताओं को प्रभावित कर सके, साथ ही उन की शंकाओं का समाधान भी कर सके. प्रवचन करना भी एक कला है. वक्ता श्रोता की बुद्धि में अपनी बात को बैठाने में सक्षम हो सके तभी उस के प्रवचन की सार्थकता है. कई बार वैदिक सिंद्धातों को भली-भांति न जानने वाले मंच पर अवैदिक बातें बोल जाते हैं, जो आर्य-समाज को काफी क्षति पहुंचाती हैं. अब मेरे सामने सब से बड़ी समस्या यही थी कि जो पढ़ा व सुना है उस को भूल जाती. इस का समाधान निकाला कि अपने परिवार के सदस्यों के साथ व परिचित लोगों के साथ अन्य विषयों की चर्चा न कर के आध्यात्मिक चर्चा ही की जाए. मैंने प्रयास किया परन्तु लगा कि इन को मेरी बातों में रूचि नही है. भौतिक उपलब्धिओं में अधिक रूचि है. कई बार तो मैं भी उन की इन बातों में रूचि लेने लगती और बाद में मुझे दुःख भी इस बात का होने लगता कि व्यर्थ में समय गवां दिया है. एक दिन ऐसे ही विचार आया कि जो पढ़ा व सुना है, उसे लिखने का अभ्यास किया जाए. लिखते समय विचारों को पकड़ना बहुत ही कठिन लगा. विचार आगे भागते और लेखनी पीछे रह जाती. कई बार निराश होकर लिखना भी छोड़ देती. ईश्वर प्रेरणा हुई विचार आया कि लिखने का बार-बार अभ्यास करना चाहिए और मैंने लिखने का प्रयास फिर से शुरू किया. परोपकारी पत्रिका में पढ़ा कि उन्होंने पत्रिका में पाठकों के विचार, पाठकों की प्रतिक्रियाएं और जिज्ञासा-समाधान स्तम्भ आरम्भ किये हैं. मैंने भी साहस बटोर कर एक जिज्ञासा भेजी और पाठकों के विचार अंतर्गत अपना विचार भेजा जिसे सम्पादक जी ने प्रकाशित किया. मेरा उत्साह बढ़ा और जो पढ़ती व सुनती उन विचारों को लेख बद्ध कर के पत्रिका को भेजना शुरू कर दिया. बच्चों ने इस बीच मुझे कम्पूटर सिखा दिया. बच्चे काफी समय से अनुरोध कर रहे थे कि मुझे कम्पूटर सीखना चाहिए परन्तु मैंने इस में कोई विशेष रूचि नही दिखाई थी कारण कि मैं कम्पूटर सीखना बच्चों के लिए ही जरूरी है, यही समझती रही. बच्चों ने मेरी इस मिथ्या धारणा को दूर कर दिया तथा समझाया कि इस पर मैं आर्य समाज सम्बन्धित कार्य-क्रमों की और आर्ष साहित्य की अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त कर सकूंगी. अब मैंने अनुभव किया है कि कम्पूटर पर लिखना काफी सरल है क्योकि इस में काँट-छांट की सुविधा है. मेरे कई परिचित व अन्य पाठकगण पत्रों द्वारा व फोन द्वारा लेखों की प्रशंसा करते हैं तो एक विचार मेरे मन में आता है कि मैं कैसे प्रशंसा की अधिकारिणी हो सकती हूँ. प्रशंसा के पात्र तो वे ऋषि एवं विद्वान हैं जिन के ये विचार हैं. मैं तो केवल उन के विचारों को जो पढ़ा व सुना है लेख बद्ध करके विद्या प्राप्ति की शैली प्रवचन काल का अभ्यास कर रही हूँ जिस का सब से बड़ा लाभ तो मुझे मिल ही रहा है कि मेरे समय का सदुपयोग हो रहा है. इस पढ़ी विद्या को अपने व्यवहार काल में और अपने आचरण में ला सकूं क्योंकि विद्वानों का मानना है कि यदि विद्या को व्यवहार काल में नहीं उतारते तो पढ़ी, सुनी और विचारी विद्या व्यर्थ हो जाती है. ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि ऋषियों की इस विद्या प्राप्ति की शैली को अपने जीवन में बड़ी श्रद्धा के साथ आचरण में लाने का प्रयास करती रहूँ.
ईश्वर से प्रार्थना है –धियो यो नः प्रचोदयात् ||
हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करे ||
राज कुकरेजा /करनाल

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