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शिक्षा क्षेत्र में हमारी समस्याएं
आज शिक्षा का वर्गीकरण हो गया है. एक वर्ग है जो आर्थिक रूप से सम्पन्न है, वे अपने बच्चों की शिक्षा महंगे स्कूलों में करवा रहे हैं, दूसरा वर्ग जो आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं, स्कूलों की भारी फीसें देने में असमर्थ है, वे बच्चों को शिक्षा से वंचित रख रहे हैं. वे यह नहीं समझते कि शिक्षा व्यक्ति को सामाजिक एवं राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ती है. साक्षरता तथा संस्कारों का आपस में अभिन्न सम्बन्ध है. अक्षर ज्ञान के साथ–साथ ही नैतिक शिक्षा व शिष्टाचार सम्बन्धी बातों को समझने में सुविधा हो जाती है. दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को सहजता से पूरा किया जा सकता है. सामाजिक विकास परिवर्तन एवं आधुनिकीकरण में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है. इस तथ्य को सरकार ने भी स्वीकार किया है कि शिक्षा प्रत्येक बच्चे का मौलिक अधिकार है और इस लिए निशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम सन 2009 में पारित किया व लागू हो गया है. इस अधिनियम के पारित होने के साथ निःशुल्क शिक्षा का दायित्व अब सरकार का है. शिक्षा को सर्वसाधारण तक पहुँचाने हेतु सरकार वचन बद्ध है और इस की अनिवार्यता को शैक्षणिक परिदृश्य को सुधारने हेतु भी सरकार की ओर से निरंतर प्रयास हो रहे हैं. इन प्रयासों की मूल भावना यह है समाज के सभी वर्ग के व्यक्ति अपने बच्चों को शिक्षित करवाएं. सर्व शिक्षा अभियान इसी ध्येय को सामने रख कर चलाया जा रहा है. इस अभियान के माध्यम से सुनिश्चित किया जा रहा है कि विशेष वर्ग के बच्चे जिन के माता-पिता, संरक्षक या अभिभावक शिक्षा पर होने वाले खर्च को वहन करने में असमर्थ हैं, उन्हें निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध करवाई जाए और इन अध्ययनरत विद्यार्थियों को पौष्टिक व स्वादिष्ट व्यंजन दोपहर के भोजन में विद्यालय में ही परोसे जाएँ. इस के साथ ही अन्य कई सुविधाएँ दी गई हैं. 6-14 आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को अनिवार्य प्रवेश, और विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को विद्यालय तक पहुंचने की कठिनाइयों को दूर करने व उनके शैक्षिक स्तर को बनाए रखने के लिए उपयुक्त व्यवस्था का भी प्रावधान है ताकि ऐसे बच्चे अन्य बच्चों के साथ प्रारम्भिक शिक्षा पूरी कर सकें. विद्यालय में एक बार प्रवेश लेने के बाद किसी भी बच्चे को कम शैक्षिक उपलब्धि या अन्य किसी भी आधार पर अगली कक्षा में जाने से रोका नहीं जा सकता है. इस वर्ग विशेष को ध्यान में रखते हुए अनेकों सुविधाएं इस सर्व शिक्षा के अंतर्गत हैं परन्तु परिणाम तो सन्तुष्टिदायक नही मिल रहे हैं.
सर्व शिक्षा अभियान समस्याओं से घिरा हुआ है. सर्व शिक्षा अर्थात सभी को शिक्षा के साथ जोड़ना और समाज के सभी वर्ग स्वयं इस की आवश्यकता को समझे, वे इसे अपने जीवन का अभिन्न अंग मान लें. परन्तु खेद है कि जन साधारण शिक्षा के महत्व को गम्भीरता से नहीं समझ पा रहा. इस लिए अनेक समस्याओं के अंतर्गत विद्यार्थियों की शिक्षा की भी एक भयंकर समस्या राष्ट्र के सामने आ कर खडी हुई है. इस समस्या से त्राण पाने के लिए हमारी सरकार प्रयत्नशील है, किन्तु परिणाम संतोष जनक नहीं निकल पा रहा क्योंकि किसी भी समस्या के निदान के लिए ठीक दिशा में कार्य किया जाए, उस समस्या के कारण के मूल तक जाना ही पड़ता है. प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि आखिर इस समस्या के मूल तक जाएँ कैसे ? इस का उत्तर वे माता-पिता, जिनका अपनी सन्तान के लिए उत्तरदायित्व होता है, वे कहते हैं कि न तो हमारे पास समय है और न ही निदान को जानते हैं क्योंकि माता-पिता अशिक्षित हैं. वे बच्चों की पढ़ाई में सहायता नही कर सकते. बच्चों की व उन के माता-पिता की पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करें कि क्या वे अपनी भागीदारी को समझ सकने का सामर्थ्य रखते हैं. इन में से अधिकतर तो झुग्गी-झोपड़ी में रहते हैं. दैनिक जीवन की आधारभूत सुविधायों के अभाव की पूर्ति करने में ही असमर्थ है, भला इस दिशा में अपने बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में क्या भागीदारी निभायेगें?
प्रारभिंक शिक्षा के सार्वजनीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने में बच्चों के अभिभावकों की भूमिका अत्यंत ही महत्तवपूर्ण है क्योंकि चाहे कितनी भी अच्छी योजना क्यों न बन जाए जब तक अभिभावक की भागीदारी नही होगी, तब तक योजना अपने लक्ष्यों को प्राप्त नही कर सकती है ,इस लिए सर्व शिक्षा बहुत ही जटिल समस्या है. विशेषज्ञों और शिक्षाविदों को इस समस्या की गहराई तक चिन्तन करना है. इस में उन का विवेकी व दूरदर्शी होना अत्यंत ही आवश्यक है. वे केवल यह न सोचें कि इस वर्ग विशेष को सुविधाएं देने से समस्या सुलझ जायगी. सुविधाएं भी आवश्यक हैं परन्तु बच्चों को स्कूल भेजना उस से भी अधिक आवश्यक है. इस के लिए माता-पिता को शिक्षा के प्रति जागरूक करने की व शिक्षा से होने वाले लाभों से अवगत कराना भी अनिवार्य है. मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृति होती है कि जिस में लाभ देखता है उसे अवश्य ग्रहण करता है.
निःशुल्क एवं अनिवार्य बालशिक्षा, शिक्षा अधिकार विधेयक में पारित करने का एक मुख्य उद्देश्य यह भी था कि जो बच्चे बाल मजदूरी करते हैं और आर्थिक अभाव के कारण शिक्षा से वंचित रह जाते हैं, स्कूलों में निःशुल्क शिक्षा जब दी जायेगी तो बाल मजदूरी समस्या का भी समाधान हो जाएगा, लेकिन जिन माता-पिता व अभिभावकों को सुविधाएं दी जा रही हैं वे स्वयं पूर्णतः अशिक्षित होने के कारण शिक्षा के महत्त्व को समझते नहीं कि बच्चों के सम्पूर्ण विकास के लिए शिक्षा कितनी महत्त्वपूर्ण है. माता-पिता के जागरूक रहने पर ही कोई पद्धति व नियम ठीक ढंग से लागू की जा सकती है. माता-पिता केवल यह समझते हैं कि उन के बच्चों को स्कूल में कुछ सामान निःशुल्क मिल जाएगा, इसी प्रलोभन से बच्चों को प्रवेश करवा रहे हैं. बच्चे महीनों अनुपस्थित रहते हैं, माँ के साथ कोठियो में काम करते हैं और जिस दिन ज़रा भनक पड़ जाए कि सामान मिलने वाला है उस दिन सब बच्चे उपस्थित हो जाते हैं. इन का पाठशाला का प्रवेश केवल सामान का आकर्षण है और जिस दिन उन्हें पता चलेगा कि सामान मिलना बंद हो गया है तो पूरी योजना धरी की धरी रह जायगी.
बच्चों की शिक्षा का उत्तरदायित्व माता-पिता के साथ ही साथ अध्यापक वर्ग का भी उतना ही महत्वपूर्ण है. आज का अध्यापक वर्ग केवल वेतन भोगी बनता जा रहा है, ऐसा लिखने में कोई भी अतिश्योक्ति नहीं है. शिक्षा सम्बन्धी चर्चा अध्यापक वर्ग से की जाती है तो, वे तो अपना हाथ इस समस्या से खींच लेते हैं. उन का मानना है कि सर्व शिक्षा के अंतर्गत बने नियमों ने उन के हाथ बांध रखे हैं, इसलिए वे असमर्थ हैं. बच्चे की योग्यता के स्तर पर ही उस की कक्षा निर्धारित नहीं की जाती बल्कि उसकी आयु के आधार पर की जाती है. बच्चे नियमित रूप से स्कूल नही आते, महीनों अनुपस्थित रहते हैं, उनका रजिस्टर से न तो नाम काट सकते हैं, न ही उन्हें किसी प्रकार की धमकी दी जा सकती है. बच्चे को किसी भी कक्षा में अनुतीर्ण नहीं किया जा सकता. हर वर्ष उस की योग्यता की परीक्षा किए बिना उसे अगली कक्षा में भेज दिया जाता है. जब कभी खाना पूर्ति के लिए परीक्षा ली जाती है तो बच्चों को नकल करने की पूरी छूट दी जाती है और कई बार तो अध्यापक लोग स्वयं ही प्रश्नों को हल करने व नकल मारने में और किसी भी प्रकार की सहायता करने में संकोच नहीं करते. सब बच्चे व उन के माता-पिता भली भांति जानते हैं कि बच्चा पढ़े या न पढ़े पास तो हो ही जाना है. इस कारण भी शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है. अध्यापकों का मानना है कि उन के स्तर की जिम्मेवारी अध्यापकों पर भी नहीं डाली जा सकती. कहने को तो बच्चा चौथी व पांचवी में पढ़ता है परन्तु उस का सामान्य ज्ञान तो पहली व दूसरी कक्षा के समान भी नही होता. विडम्बना तो यह है कि ऐसे बच्चों की नौकरी भी भविष्य में हमारी सरकार ने आरक्षण नीति के अंतर्गत सुरक्षित कर रखी है. सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत दी गई सुविधाओं को भविष्य में बंद करनी पड़े, ऐसी सम्भावना भी नहीं है क्योंकि यह मनुष्य की प्रवृति है कि एक बार दी गई सुविधा को सदैव के लिए समझ लेता है और जब नही मिलती तो विरोध भी करता है.
सर्व शिक्षा में माता-पिता सहयोग नहीं कर सकते. अशिक्षित होने के कारण विवश हैं. अन्य व्यवसायियों की भाँति शिक्षक वर्ग भी एक व्यवसायी वर्ग बन चुका है. हर व्यक्ति की यह मानसिकता बनती जा रही है, काम कम और वेतन अधिक. चारों ओर भ्रष्टाचार का बोल-बाला है, शिक्षा का क्षेत्र भी इस से अछूता नहीं रहा, यह भी आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा पड़ा है. शिक्षकों से सर्व शिक्षा में सहयोग की आशा की जानी व्यर्थ लग रही है. आशा की किरण अब केवल सामाजिक संगठन अथवा सेवा निवृत वरिष्ठ नागरिक जिन में अर्थ लालसा न हो तथा स्वार्थ रहित हों. ऐसे लोग अपने आस-पास उन बालकों को जो पाठशाला नहीं जाते उन्हें पाठशाला में प्रवेश दिलायें और जब बच्चे पाठशाला से आयें तो उनकी पाठशाला में मिले गृहकार्य में सहायता करें, बच्चों को कहानियाँ सुनाएँ व नैतिक शिक्षा सम्बन्धी वार्ता करें. यह कार्य किसी भी पार्क में बैठ कर भी किया जा सकता है, अथवा घर के पास यदि कोई मन्दिर, आर्य समाज या गुरुद्वारा है तो वहां भी इन बच्चों की कक्षा लगाई जा सकती है. इन संस्थानों के अधिकारी ऐसे श्रेष्ठ कार्यो में बाधा नहीं डालते अपितु यथासम्भव सहयोग करते हैं. कई दानवीर ऐसे भी हैं जो इन बच्चों की आर्थिक सहायता करना चाहते हैं. मेरा मानना है कि दान देने वालों की कमी नहीं है, दान लेने वालों की नीयत साफ़ होनी चाहिए. सब दानों मे से शिक्षा का दान उत्तम माना गया है. किसी को रोटी मत दो, उसे रोटी कमाना सिखा दो. रोटी देते रहना उसे पंगु बनाना है, शिक्षा देना, उसे जीवन भर आत्म निर्भर बनाना है. हम सब अपने बच्चों को शिक्षित करते हैं, यह हमारी विवश्ता है. दूसरे के बच्चे को शिक्षित करना, सच्चे आनन्द की अनुभूति है, जिसे व्यक्त तो नहीं किया जा सकता किन्तु अनुभव अवश्य किया जा सकता है. इस प्रकार सेवा निवृत वरिष्ठ नागरिक सर्व शिक्षा में सहयोग कर सकते हैं. प्रारम्भ में कुछ परेशानियां भी आ सकती हैं, क्योंकि बच्चों को पढ़ाई में रूचि नहीं है. वे नियमित रूप से स्कूल भी नही जाते. स्वछन्द प्रवृति के बच्चों को स्कूल की चार दिवारी में रहना किसी जेल से कम नही लगती. लेकिन धीरे-धीरे जाने के अभ्यस्त हो जाते हैं. हम इन बच्चों में शिक्षा के प्रति रूचि डाल रहे हैं. परिणाम उत्साह वर्धक मिल रहे हैं. यह कार्य कठिन है परन्तु असम्भव नही है, हाँ पुरुषार्थ साध्य अवश्य है.
दूसरी ओर जहाँ सरकार विधेयक पारित करती है तो इस का कर्तव्य भी बनता है कि देखे कि जनता उस का पालन करे, सरकार का दायित्व जहाँ जन समान्य को शिक्षा को उपलब्ध करवाना है, वहाँ सरकार का यह भी दायित्व है कि जो माता-पिता छह से आठ वर्ष की आयु के बच्चों को स्कूल नहीं भेजते उन्हें दंड भी दिया जाए. इस दंड का पूर्णतः परिपालन हो. इस के लिए सरकार को सतर्क रहने की आवश्यकता है. विकसित देश बनने के लिए सभी का शिक्षित होना आवश्यक है. किसी ने बड़ा ही सुंदर कहा है कि जब बी.ए.बने चमार और एम.ए.लोहार हो, तो फिर देखिये देश में कैसी बहार हो.
राज कुकरेजा /करनाल
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