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नारी की सुरक्षा ?
नारी का एक रूप नारी बनने से पूर्व कन्या का है. कन्या माँ की कोख में भी सुरक्षित नहीं है. बेटी न बाहर सुरक्षित है न ही माँ के गर्भ में. बाहर तो बलात्कार पर-पुरूष करता है परन्तु यहाँ तो उस की हत्या उस की ममता की मूर्ति माँ ही करती है, कारण कई हो सकते हैं. घर के सदस्यों के दबाव का भी एक कारण माना जाता है जो उसे इस निर्मम कर्म करने को विवश करता है. परन्तु इस से माँ अपने को निर्दोष सिद्ध नहीं कर सकती, यदि दबाव को कारण मान भी लिया जाए तो भी प्रश्न उठता है कि क्या वह विरोध और विद्रोह नही कर सकती? मुख्य अपराध तो माँ ही करती है. यह सब डाक्टरों की मिली भगत से योजना बद्ध होता है कि किसी को कानों कान तक खबर नहीं पड़ती. कन्या आखिर क्यों नहीं चाहिए? इस के भी अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन मुख्य रूप से तीन ही समझ आ रहे हैं. प्रथम तो लोग इस मिथ्या धारणा के शिकार हैं कि वंश बेटे से चलता है. इस पर जरा विचार करें कि क्या सचमुच वंश बेटे से चलता है? आज हमारे कितने बच्चे अपने दादा के पिता के नाम को जानते हैं? अपने पिता के नाम को भी इस लिए जानते हैं क्योकि पाठशाला में प्रवेश करते समय बच्चे के पिता का नाम लिखना अनिवार्य होता है . वंश नाम से नहीं काम से चलता है. आज हम जिन को भी याद करते हैं, उन के काम के ही कारण याद करते हैं.
कन्या भ्रूण हत्या का दूसरा कारण, कन्या को आर्थिक बोझ समझ कर भी होती है. जैसे-जैसे मंहगाई बढ़ रही है लेनदेन, दहेज़ और प्रतिष्ठा प्रदर्शन ज़ोरों से बढ़ रहा है. समाज का एक वर्ग अधर्म से कमा कर अपनी तिजोरियां भर रहा है. उस के लिए विवाह आदि ऐसे अवसर हैं जहाँ वे दिल खोल कर धन लुटा सकता है और लुटा भी रहा है. सीमित आय वाला स्वयं को असहाय पाता है. समाज में पुरुष मानसिकता के कारण बेटे वाले स्वयं को अधिक भाव देते हैं. बेटी पक्ष वालों से अपनी मनमानी मांगें व शर्तें मनवाने का अपना मौलिक अधिकार समझने लगे हैं. विवाह गुण-कर्म -स्वभाव के अनुरूप न होकर एक व्यवसाय के रूप में परिवर्तित होते जा रहे हैं. इन कुरीतिओं का सामना माता-पिता नहीं कर सकते. भीरु और डरपोक बन कर गर्भ में पल रही कन्या की भ्रूण हत्या में ही भलाई समझ कर एक बहुत बड़ा अपराध कर लेते हैं. कन्या भ्रूण हत्या एक बहुत बड़ा जघन्य अपराध है .यहाँ की अदालत में भले ही दंड से बच जाएँ परन्तु न्यायकारी ईश्वर की अदालत से नही बच सकते. समाज की यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि एक ओर कन्या को देवी मान कर नवरात्रों में श्रद्धा के साथ उस के पग धोता है. उस की पूजा करता है तो दूसरी ओर गर्भ में ही कन्या रूपी कली को बड़ी ही निष्ठुरता के साथ कुचल दिया जाता है. यह मानव की विकृत बुध्दि का परिणाम नही तो और क्या हो सकता है?
बेटे की चाहत का तीसरा कारण है कि बेटा वृद्धावस्था में उन को आश्रय देगा. बेटी तो विवाह के बाद पराये घर चली जाती है. प्रत्यक्ष प्रमाण है कि उन का यह भ्रम भी टूट चूका है. आज कल बेटे भी बहू को ले कर नौकरी के लिए किसी दूसरे शहर या विदेश जा रहे हैं. कई बच्चे अपने माता-पिता को इसलिए भी पास नहीं रख रहे क्योंकि वे आज़ाद रहना चाहते हैं और माता-पिता उन की आज़ादी में बाधक बन सकते हैं. कई माता-पिता बेटे के पास इसलिए रह रहे हैं क्योकि बहू नौकरी करती है, माता-पिता उन के बच्चों की देखभाल करते हैं. यह सर्व विदित तथ्य है कि बेटी बेटे की अपेक्षा अधिक भावुक एवं सम्वेदनशील होती है. प्रायः देखा जा रहा है कि माँ-बाप बेटे-बहू से उपेक्षित हो रहे हैं. बेटी अपने घर उन का स्वागत कर रही है. यह उचित है या अनुचित परन्तु यह तो सिद्ध हो ही रहा है कि जिस बेटी के जन्म को स्वागत के रूप में नहीं लिया गया था, बस स्वीकार कर ली गई थी, माता-पिता के लिए कितने उदार ह्रदय वाली होती है.
सुरक्षा की दृष्टि से समाज का एक वर्ग जो घरेलू हिंसा से पीड़ित है, उस की उपेक्षा नही की जा सकती. इस वर्ग में अधिकाँश महिलाएं श्रम जीवी हैं. दिनभर या तो मजदूरी करती हैं या दूसरों के घरों में काम करके जीवन निर्वाह करती हैं. पति जो कुछ थोड़ा यदि कमा भी लेता है तो उस से दारु पीता है, घर में मार पिटाई करता है और पत्नी की झोली में जिन बच्चों को डालता है, उन के पालन का दायित्व भी पत्नी के कन्धो पर होता है. इस वर्ग को सुरक्षा के साथ-साथ सहानुभूति की भी आवश्यकता है. इन्हें शिक्षा के साथ अपने अधिकारों के प्रति भी जागृत करना अत्यंत ही आवश्यक है.
नारी को सुरक्षा इन पुरुष मानसिक वाले राज नेताओं, सर्वखाप के प्रधानों और संत-बाबों के विवादस्पद वक्तव्यों तथा इन की टीका-टिप्पणी से चाहिए. वे अपने वक्तव्यों द्वारा नारी को उस मध्य काल में ले जाना चाहते हैं, जब नारी उपेक्षित तथा अपमानित जीवन जीने को विवश थी. उसे शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया, वेदों के पढने का अधिकार नहीं दिया गया तथा उसे ताडन का अधिकारी माना गया. तब देश पर मुगलों का राज था. परिस्थितियाँ अलग थीं पर अब देश आज़ाद है. इन्हें इस प्रकार के वक्तव्य नहीं देने चाहिए, यदि देते हैं तो हम सब को एक स्वर में कड़ा विरोध करना चाहिए. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने न केवल “वेदों की ओर लौटो का उद्घोष दिया अपितु जो आज के युग में नारी को समानाधिकार मिल रहे हैं, उसे लिंग, जाति, व सम्प्रदाय विशेष के आधार पर अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता, नारी को वेद पढने का अधिकारी भी बनाया. इस सब में ऋषि दयानन्द जी का विशेष योगदान है, जिस के लिए सारी नारी जाति ऋषि दयानन्द सरस्वती जी की ऋणी रहेगी.
सरकार के कड़े क़ानून क्या सुरक्षा दे पायेंगे? संदेहस्पद लगते हैं. पोलिस भी भ्रष्ट सरकार के हाथों बिकी हुई है. सरकार ही नहीं चाहती कि अपराध की सभी शिकायतें दर्ज़ की जाएँ. इस से अपराध की बढती दर सब के सामने उजागर हो जायगी तो सरकार की छवि खराब होगी और इस खराब छवि को लेकर अगले चुनाव में जनता के सामने क्या मुहं लेकर जायेगी. प्रश्न उठता है कि क्या नारी असुरक्षित भावना से ही जीती रहे. नारी को स्वयं अपनी सुरक्षा के लिए कटिबद्ध होना पड़ेगा. नारी की शक्ति बेटी, बहू, सास के रूप में बिखरी पड़ी है. अपनी शक्ति को पूरी स्त्री जाति में समेट कर एक सन्गठन के रूप में आये. स्वजाति द्रोह छोड़ कर माँ के रूप में बेटी को जन्म दे. बहू बन कर सास को सम्मान दे, सास बन कर बहू का स्वागत करे. समाज में फैली कुरीतियोँ को उखाड़ कर फेंक दे. किसी ने बड़ा सुंदर कहा है “जिस प्रकार मणियों का मूल्य पृथक रहने पर कम होता है, माला के रूप में उन का मूल्य बढ़ जाता है, इसी प्रकार जाति जब एक होती है तो उस का विशेष आदर व महत्व होता है, परन्तु उसी जाति का पृथक-पृथक टुकड़ा वह सम्मान तथा मूल्य नहीं पा सकता ”
मेरा कर जोड़ अपनी बहनों से अनुरोध है कि अब सुंदर काण्ड की पंक्तियाँ “ढोल गवांर शुद्र पशु नारी ये सब ताडन के अधिकारी” का पाठ करना छोड़ दें. जब तुलसीदास जी ने इन्हें लिखा था तब सामाजिक परिस्थितियां भिन्न थीं अब भिन्न हैं. अब सर्व शिक्षा के अभियान चलाए जा रहे हैं, जिस में शिक्षा का मौलिक अधिकार समाज के हरेक वर्ग के लिए है अपने भजन-कीर्तन में एक भजन बोलती हैं “घर-घर रावण बैठा, इतने राम कहाँ से लाऊं ” रावण भी हम ने पैदा किये हैं और अब राम भी हम ने पैदा करने हैं. माता-पिता व आचार्य उन्हें सुसंस्कार नहीं दे रहे, दूसरी ओर दूरदर्शन जो आजकल हर परिवार का एक अभिन्न अंग बना हुआ है, उस पर दिखाए जा रहे निम्न स्तर के कार्य-क्रम और अश्लील फ़िल्में बच्चों को वास्विकता से भटका रही हैं. हम दोष बच्चों को दे रहे हैं कि बच्चे चरित्र हीन हो रहे हैं. अपने बच्चों को सुसंस्कार दे कर ही उन्हें राम बनाना कोई मुश्किल काम नहीं है. इस के लिए अपने बच्चों को माता-पिता घर में व अध्यापक वर्ग विद्यालयों-महाविद्यालयों में नैतिक मूल्यों की शिक्षा दें. बच्चों के चरित्र निर्माण पर विशेष ध्यान दें .शास्त्रों में कहा गया है “आत्मनः विपरीतानि परेषाम न समाचरेत” इस का अर्थ है कि जिस बात को चाहते हो कि दूसरे तुम्हारे साथ न करें, वे दूसरों के साथ न करो. यह नैतिक शिक्षा की अंतिम कसौटी है. हम नहीं चाहते कि कोई हमारी बेटी-बहन की तरफ बुरी नजर उठाये, तो फिर हम क्यों उठाते हैं?
माताएं आसामाजिक घटनायों को समाचार पत्रों में पढ़ती हैं, दूरदर्शन पर देखती हैं और लोगों से भी सुनती हैं तो सहम सी गई हैं. किसी भी अनिष्ट की आशंका से बच्चों को बाहर खेलने नहीं भेजती, बच्चे घर की चार दिवारी में इंटरनेट और टी.वी से चिपके रहते हैं. विज्ञापन जगत अश्लील विज्ञापनों द्वारा मनुष्य की वासनाओं और भावनाओं को भडकाने का काम करता है, दूसरी ओर दूरदर्शन पर दिखाई जाने वाली फ़िल्में और निम्न स्तर के धारावाहिक बाल बुध्दि को भ्रमित करती हैं. बच्चे नायक-नायिका से इतने प्रभावित हो जाते हैं कि मन ही मन उन्हें आदर्श मान कर उन का अनुकरण करने लगते हैं. वैसे फैशन, वैसी ही अर्धनग्न वेश-भूषा पहनना उन्हें अच्छा लगता है. फिल्मों में दिखाए जाने वाले हिंसा, अश्लीलता, क्रूरता व बर्बरता के दृश्य बालकों के कोमल चित पर कुसंस्कारों की छाप छोड़ते हैं, परिणाम स्वरूप यही बच्चे बढ़े हो कर भंयकर अपराध करने लगते हैं. अतः हम सभी वर्ग के लोग मिल कर सरकार पर अपना रोष प्रकट करें कि वह टी.वी व फिल्मो पर अंकुश लगाये. सरकार पर एक जुट होकर दबाव बनाये जैसे दिल्ली गैंग रेप पर युवा शक्ति ने सडकों पर उतर कर प्रकट किया तो सरकार को सचेत होना पड़ा. आवश्यकता है सोई सरकार को जगाने की जो जनहित का ध्यान कर सके.
सुरक्षा की दृष्टि से यह अति आवश्यक है कि हम अपने आस-पास नजर रखें कि कहाँ क्या हो रहा है. यह भी एक विडम्बना है कि इंटरनेट से हम उन व्यक्तियों से तो सारे विश्व में जुड़ गये हैं, जिन्हें देखा नहीं व जानते नहीं पर पास रहने वाले पड़ोसी से परिचय तक नहीं. हम लोग स्वार्थी, संकीर्ण और सम्वेदना शून्य हो रहे हैं. आस-पास के लिए सतर्क नहीं रहते अपितु अपने-अपने घरों के बड़े-बड़े गेट लगवा कर स्वयं को किल्ले में बंद कर लिया है. परिणाम हमारे सामने है कि चोर-उच्चके और दरिंद बाहर स्वछन्द भाव से घूम रहे हैं. अपराधी निसंकोच अपराध पर अपराध किये जा रहे हैं.
अब वर्तमान में हम अर्थात समाज का हर वर्ग, पोलिस और सरकार इस असुरक्षा की लड़ाई को मिल कर लड़ें. अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करें, सर्व प्रथम पोलिस अपनी भक्षक की छवि को सुधारे, जनता की रक्षक बन कर जनता का विश्वासपात्र बने, हर पीडिता की रिपोर्ट दर्ज करे और यदा सम्भव सहायता भी करे. सरकार जो कड़े–से कड़े क़ानून बनाती है उस का पालन भी सख्ती से करे अर्थात दोषियों को दंड देने में अपना ढीला ढाला रवैया छोड़ दे. आम जनता का विश्वास सरकार और न्याय व्यवस्था से उठने लगता है, जब दोषियों को उन के दुष्कर्म का फल मिलते नही देखते. दंड व्यवस्था बढ़ते अपराधों को कम कर सकती है. आम नागरिक भी सतर्क रहे. हम अपनी बच्चियों को जूडो और कराटे का भी परिक्षण दिलवाएं ताकि कुछ तो अपनी रक्षा करने में सक्षम हो सकें. समाज पूरी तरह तो अपराध मुक्त न कभी हुआ है और न ही हो सकता है. अपराधों को काफी सीमा तक अवश्य कम किया जा सकता है. निराश व हताश न हों जब कभी निराशा घेरने लगे, विश्वास डगमगाने लगे तो इन पंक्तियों को याद करते रहें “आप मानवता में विश्वास मत खोइए, मानवता सागर की तरह है. अगर सागर की कुछ बूंदे गन्दी हैं तो सागर गंदा नहीं हो जाता ”
अंत में ईश्वर से प्रार्थना है—-धियो यो नः प्रचोदयात
राज कुकरेजा /करनाल
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