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ऋषि दयानन्द और आर्य समाज (भाग 2)

चिंतन के क्षण
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ऋषि दयानन्द और आर्य समाज (भाग 2)
आर्य समाज जीवन जीने की एक अदभुत शैली है जो ऋषि दयानन्द जी के तप से हमें मिली है. उन्होंने आर्य समाज को मुख्य-मुख्य दस नियम व वेदों के आधार पर कुछ सिद्धांत दिए हैं जिन का वे स्वयं भी पालन करते थे. दस नियमों में प्रथम दो तो ईश्वर के स्वरूप को बताते हैं. परम धर्म वेद का पढ़ना-पढाना, सुनना-सुनाना है. वे केवल वेद को पढ़ना और सुनना ही धर्म नहीं मानते अपितु उस का पढ़ाना और सुनाना भी धर्म है क्योंकि जब तक पढ़ी और सुनी विद्या को व्यवहार में नहीं लाया जाता, मन पर संस्कार दृढ़ नहीं बनते और इसके विपरीत पढ़ा, सुना और विचारा सब व्यर्थ सा हो जाता है. सबको सत्य का ग्रहण करने व असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए. सब कामों का आधार सत्य हो, समाज का मुख्य उद्देश्य शरीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति करना है, सबके साथ प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार व्यवहार करना चाहिए, अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि करनी चाहिए, अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहकर सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए. सब मनुष्यों को सामाजिक सर्व हितकारी नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतंत्र रहें. ऋषि ने वेद और सब सत्य शास्त्र जिन का आधार वेद ही है से प्रमाणित किया है कि ईश्वर एक है, ईश्वर-जीव-प्रकति तीनों आनादि पदार्थ हैं, पुनर्जन्म होता है, ईश्वर न्यायकारी है उस की कर्मफल व्यवस्था में किये हुए पाप कर्मो का फल अवश्य मिलता है अर्थात क्षमा मांगने से फल नहीं मिलता ऐसा कोई प्रावधान नहीं है.

हमारे पूर्वज बताते हैं कि इन नियमों व सिद्धांतो में एक जादू भरा हुआ था कि बुद्धिजीवी वर्ग बरबस ही आर्य समाज की ओर खिंचता ही चला आया. आर्य समाज ने सामान्य जन को भी ऋषि की विचार धारा से जोड़ने में मुख्य भूमिका निभाई. जन समूह केवल लाभान्वित ही नहीं हो रहा था अपितु अपनी एक अलग छवि का प्रभाव अन्य मतावलम्बियों पर भी डाल रहा था. बहुधा यही सुनने में आता था कि मनसा- वाचा-कर्मणा का यदि कोई पालन करने वाला है, तो वह आर्य समाजी ही है. यही आर्य समाज का स्वर्णिम युग था. अनेकों लोगों ने अपने जीवन को कुंदन बनाया. आर्य समाज में आने वाले सदस्यों पर ऋषि जी ने उत्तरदायित्व दिया था कि सदस्य समाजों में आये. सिंद्धांतों को समझें, नियमों का पालन करें व करवाएं और परस्पर ईर्ष्या-द्वेष की भावना को छोड़ कर समाज कल्याण में किस प्रकार का सहयोग दिया जा सकता है, विचार-विमर्श करें और आर्य समाज की भावी योजनाओं का निर्णय लें व निर्माण करें. इसलिए कहा जा सकता है कि ऋषि के विचारों को कार्यरूप में परिणीत करते हुए, उनके सपनों को केवल आर्य समाज के माध्यम से साकार किया जा सकता है.
कोई भी समाज जब अपने नियमों व सिद्धांतों के कारण प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है तो वह प्रतिष्ठा मात्र नियम-सिद्धांत के कारण ही नहीं होती. वह होती है, उन सिद्धांतों को जीने वालों के कारण. व्यवहार ही व्यक्ति की कसौटी होती है, इस लिए कहा जाता है कि कोई भी सिद्धांत व नियम चाहे कितने ही उच्च आदर्श वाले एवं कितने ही पवित्रतम क्यों न हों अगर उन्हें व्यवहार में नहीं अपनाते तो वे परिस्थिति विशेष में अपना महत्व खो देते हैं. आर्य समाज के मूल्य आज आप्रासंगिक हो गये हैं. इन मूल्यों के प्रति हमारी कर्तव्य पालना काफी कम हो गई है. ऋषि दयानन्द जी ने वेदों को सनातन चिन्तन का आधार बना कर जीवन की जो शैली निर्मित की उस पर स्वयं चले और सामान्य जनों को उस पर चलने के लिए प्रेरित किया. उन का तेजस्वी और आचरणीय व्यक्तित्व आम आदमी में स्फूर्ति भरने वाला था. वे पूरे मानव समाज के प्रकाश स्तम्भ थे. मार्ग दर्शक वह है, जो सद मार्ग पर चलता है और दूसरों को प्रेरित करता है, सही रास्ता दिखाता है. आर्य समाज का चरमोत्कर्ष पर होना उन का निज व्यक्तिव था.
आज समाज के नियम और सिद्धांत वही हैं. लगभग सभी आर्य समाजों की दीवारों पर अथवा पट्टियों पर लिखित हैं और केवल दीवारों की शोभा को बढ़ा रहे हैं. शाब्दिक रूप में ज्ञान चाहे बढ़ गया हो, परन्तु व्यवहारिक ज्ञान लगभग शून्य की ओर अग्रसर हो रहा है, जिस कारण युवा वर्ग और सामान्य जन स्वयं को आर्य समाज से नहीं जोड़ पा रहा है. आर्य समाज में श्रद्धा, निष्ठा, सेवा भाव व आत्मीयता का अभाव है. नियम व सिद्धांतों को जन समूह के सम्मुख रखने में स्वयं को सक्षम न बना कर केवल खंडन की प्रति क्रिया को महत्वपूर्ण बना दिया गया है, कारण विद्वानों का आर्य समाजों में यथोचित सत्कार नहीं है. उच्च कोटि के विद्वान भी नहीं हैं, जिन गुरुकुलों से विद्वान तैयार होते थे, उन के पास विद्यार्थी नहीं हैं. सभी माता-पिता और अभिभावक अपनी सन्तान को आधुनिक भौतिक शिक्षा देना अपना प्रथम कर्तव्य मान रहे है. जो थोड़े विद्वान उपलब्ध भी हैं, उनमें परस्पर का विरोध भी समाज की छवि को बिगाड़ रहा है. कुछ स्वार्थ बुद्धि वालों का भी आर्य समाज में प्रवेश हो जाना है, जो अपने स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानते, मानते. देश-काल के अनुकूल अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए ये स्वार्थी विद्वान अपने आत्मा के ज्ञान के विरुद्ध भी कर लेते हैं. स्वार्थी दोषं न पश्यति. स्वार्थी लोग अपने काम की सिद्धि के लिए दुष्ट कामों को भी श्रेठ मान, दोष को नहीं देखते. आर्य समाजों में उपस्थति कम होती जा रही है जो बहुत बड़ी चिंता का विषय है. आर्य समाज की गतिविधियाँ केवल वार्षिक उत्सव तक ही सीमित हो गई हैं. सेवा नाम की कोई वस्तु अब आर्य समाज में देखने व सुनने को नहीं मिलती जो उचित नहीं है, उधर दूसरी संस्थाओं में केवल सेवा की भावना की घुट्टी पिलाई जा रही है जो अनुचित है. अवैदिक परम्पराएं फैलती जा रही हैं, नित नये-नये मत-मतान्तर उपज रहे हैं. लोगों को भ्रमित कर रहे हैं. सत्य ज्ञान इन के पास है नहीं, केवल कर्म-उपासना का उपदेश दे कर कि सेवा से ही मोक्ष प्राप्ति होती है इस का बड़ी चतुराई से केवल जन साधारण में ही नहीं अपितु शिक्षित वर्ग में भी प्रचार किया जा रहा है. ये पाखंडी लोग नहीं चाहते कि उन के अनुयायी ज्ञानी व बुद्धिमान हों यदि ये बुद्धिमान हो जायेंगे तो इन के पाखंड जाल में नहीं फसेंगे और इन की प्रतिष्ठा और जीविका का नाश हो जाएगा. ये अंधे लोग भेड़ के तुल्य एक के पीछे दूसरे चलते हैं. अंधे के पीछे अंधे चलें तो दुःख ही पायेंगे. सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में ऋषि लिखते हैं कि कर्म, उपासना अविद्या है. यह बाह्य अंतर क्रिया विशेष का नाम है, ज्ञान विशेष नहीं. ,शुद्ध कर्म, शुद्ध उपासना शुद्ध ज्ञान से ही मुक्ति प्राप्ति होती है.

आज आवश्यकता है कि हर आर्य समाज में पदाधिकारी अपने निज स्वार्थ और तुष्टिकरण नीति से ऊपर उठे और योग्य वैदिक विद्वानों को, मनीषियों को बड़े सम्मान के साथ उनके चिन्तन, नियम और सिद्धांतों के अनुसार समाज का नेतृत्व करने दिया जाए, जिस से आर्य समाज का एक व्यवस्थित ढांचा खड़ा हो सके.ऋषि के ऋण से उऋण होने का केवल एक ही रास्ता है कि आर्य समाज के नियमों व सिद्धन्तों को समाज की चार दिवारी से बाहर जन-जन तक पंहुचाया जाए. ये तभी सम्भव है जब आर्य समाजों का सभाग्रह श्रोताओं से खचाखच भरे हों और हर सदस्य स्वयं को आर्य समाज का अभिन्न अंग मान कर पूर्ण निष्ठा व श्रद्धा से समर्पित हो. जो आर्य समाज में राजनीति की भावना से प्रेरित हो कर आते हैं और पूरा वातावरण इन लोगों के कारण दूषित होने लगता है, और समाज के प्रति इन लोगों की श्रद्धा और आस्था नहीं होती तो इन को नेतृत्व नहीं दिया जाना चाहिए, राजनीति में धर्म हो तो राजनीति उत्कृष्ट और धर्म में राजनीति धर्म को निकृष्ट के कगार पर ला कर खड़ा कर देती है. परन्तु आज विकट परिस्थति उत्पन्न हो गई है कि इन पदाधिकारियों को इन की योग्यता के आधार पर नहीं अपितु स्वार्थ के कारण नेतृत्व दिया जाता है. ये लोग भी योग्यता से ज्यादा योग्य दिखने की कोशिश व नाटक करते हैं. जीवन की सब से अंधी दौड़ वह होती है जब हम यश के लोभ वंशीभूत हो कर उस आवरण को ओढ़ लेते हैं. आज इस नकली असली चेहरे की पहचान अति कठिन साध्य हो गई है.
आर्य समाजों में आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय की उच्च परम्परा भी लुप्तप्रायः होती जा रही है जो अति शोचनीय विषय है. केवल वेद अमर रहें, सत्यार्थ प्रकाश अमर रहे के उद्घोष से कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है. प्रत्येक आर्य समाजी का प्रथम कर्तव्य बनता है कि सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करे, आज आवश्यकता है कि आर्य समाजी जनता आर्य समाज के नेताओं, विभिन्न सभाओं के अधिकारिओं, संसद तथा विभिन्न सभाओं के सदस्यों का कर्तव्य है कि अपनी-अपनी सीमाओं व क्षेत्रों में सत्यार्थ प्रकाश की मान्यताओं को व्यवहारिक रूप देने का यत्न करें.
ऋषियों का मानना है कि यत्न कृत यदि न सिध्यति कोsत्र दोषः अर्थात यत्न करने पर भी यदि सफलता नहीं मिल रही तो सोचना चाहिए कि प्रयत्न में कहाँ दोष है. दवा करने पर भी अगर रोग बढ़ता जाए तो दवा में दोष है या रोग के निदान में, कहीं न कहीं दोष अवश्य है. बुद्धि जीवी वर्ग अपना प्रथम कर्तव्य समझ कर आर्य समाजों का विश्लेषण करे, भूल कहाँ हो रही है, सुधारने का प्रयास करे और सामान्य जन व युवा वर्ग से सम्पर्क करे कि उन की आर्य समाज से किस प्रकार की अपेक्षाएं हैं.
ऋषि दयानन्द सरस्वती जी सत्यार्थ प्रकाश सप्तम समुल्लास में लिखते हैं कि परमात्मा ने इस जगत के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिए दे रखे हैं, उस का गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना कृतघ्नता और मूर्खता से कम नही है. जहाँ ऋषि ईश्वर के प्रति कृतज्ञ होने की शिक्षा देते हैं तो प्रत्येक आर्य समाजी का भी कर्तव्य बनता है कि ऋषि के संदेश को जन सामान्य तक पहुंचा कर ऋषि के प्रति कृतघ्नता से बचना चाहिए. सारांश में कहें हम ऋषि के उपकारों को नहीं भूल सकते, ऋषि के रोपें गये आर्य समाज नामक पौधे को कभी भी मुरझाने नहीं देंगे, इस के लिए हम सब को दृढ़ संकल्प बनना पड़ेगा. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ईश्वर तो नहीं थे बाकी सब कुछ थे.
ईश्वर से प्रार्थना है——धियो योनः प्रचोदयात् | ईश्वर हमारी बुद्धियों को श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करे |

राज कुकरेजा /करनाल

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