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दुःख–दुःख का निवारण

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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दुःख–दुःख का निवारण
. दुःख जिसे कोई नहीं चाहता है, पर दुःखी हैं और सुख जिसे सब चाहते हैं पर सब पूर्ण रूप से सुखी नहीं हैं. जो इन्द्रियों के अनुकूल वो सुख और जो इन्द्रियों के प्रतिकूल वो दुःख. ऋषि पतंजली जी ने योग दर्शन में एक सूत्र दिया है- हेय हेयहेतु, हान हानोपाय. अर्थात दुःख, दुःख का कारण, सुख, सुख का उपाय. वे कार्य-कारण के सम्बधं को मानते हैं कि कारण को हटा देने से कार्य स्वयं हट जाता है. सभी दुःख से छूटना चाहते हैं परन्तु दुःख के कारण को नहीं पकड़ पाते, सोचते हैं कि सुख का उपाय अधिक से अधिक धन की तिजोरी भर लेने से तथा जिन साधनों से व भोग सामग्री से शारीरिक सुख मिले उसका अधिक से अधिक मात्रा में संग्रह कर लेने से वे पूर्णतः सुखी हो जायेंगे. यह उन की मिथ्या धारणा है. प्रायः देखा जाता है कि संसार के सारे भोग-पदार्थ प्राप्त कर भी मानव अशांत रहता है. ऋषि पतंजली जी का मानना है कि विवेकी जन संसार के सभी विषय-भोगों में चार प्रकार का दुःख मान कर इन्हें छोड़ देते हैं. इस सूत्र को समझा ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने जिन का जन्म हुआ एक सम्पन्न परिवार में, घर में किसी भी प्रकार का अभाव न था, पर उन्हें सच्चे सुख की तलाश थी जिस कारण घर परिवार का त्याग कर सच्चे सुख की खोज में चल पड़े. महात्मा बुद्ध बचपन में जिन का नाम सिद्धार्थ था, जन्म राज महल में हुआ, गृहस्थी बने, एक बालक को जन्म दिया परंन्तु एक रात को गृह त्याग दिया, और सच्चे सुख की खोज में निकल पड़े. ऋषि का मानना है कि संसार में- कुत्र sपि कोsपि सुखी न भवति. गुरु नानक देव जी ने इसे सरल भाषा में कहा कि ” नानक दुखिया सब संसार.”
सांख्य दर्शन के रचयिता ऋषि कपिल संसार के समस्त दुःखों का वर्गीकरण तीन प्रकार के दुःखों में करते हैं. एक आध्यात्मिक जो आत्मा, शरीर में अविद्या, राग, द्वेष, मूर्खता और ज्वर पीड़ा आदि से होता है. दूसरा आधिभौतिक जो शत्रु, व्याघ्र और सर्प आदि से प्राप्त होता है. तीसरा आधिदैविक अर्थात जो अति वृष्टि, अवृष्टि, अति शीत, अति उष्णता. मन और इन्द्रियों की अशांति से होता है. अधिकांश प्राणी आध्यात्मिक दुःख जो शरीर और आत्मा सम्बन्धी है उस से पीड़ित रहते हैं. अविद्या ही इस का मूल कारण है. दर्पण में शरीर को देखते हैं, स्वयं को केवल शरीर ही मान लेते हैं. शरीर का पालन-पोषण और इस के सजाने-संवारने को ही अपना धर्म मान लेते हैं और आत्मा जो शरीर का स्वामी है उस की उपेक्षा कर देते हैं. जब तक आत्मा को उस का भोजन जो ईश्वरीय आनन्द है नहीं दिया जाएगा, जीवन में शान्ति का स्वप्न, स्वप्न ही रहेगा. हम ने आत्मा को शरीर रूपी कमरे में बंद कर दिया है. दिन-रात शरीर को सजाने में लगे रहते हैं. आत्मा की भूख मिटाने की कभी न तो चिंता की, न परवाह की, परिणाम स्वरूप जीवन में अशांति का साम्राज्य छाया हुआ है. अविद्या के ही कारण जड़ मन को चेतन समझने लगते है और समझते हैं कि मन स्वयं ही विचारों को उठाता रहता है. अज्ञानता के कारण भूल जाते हैं कि आत्मा ही मन का स्वामी है, आत्मा की इच्छा के बिना मन कुछ भी करने में असमर्थ है. मन में अनावश्यक व हानिकारक विचारों को उठा कर हम स्वयं ही अपनी हानि कर रहे होते हैं. मन की शान्ति के लिए मन में सकारात्मक विचारों को हमें अधिक महत्त्व देना चाहिए. मन में नकारात्मक विचार मन को अशांत बनाते हैं. नकारात्मक विचारों से ही पहले हम स्वयं को दुःखी करते हैं. इस लिए अति आवश्यक है कि मन को शिव संकल्प वाला बनाएं. मन एक ऐसी नदी है जिसका प्रवाह निरंतर बह रहा है और उसे मनुष्य अपनी बुद्धि का उचित प्रयोग करते हुए कल्याण की ओर बहा सकता है, यदि बुद्धि प्रयोग समुचित न करें तो पाप की ओर भी बहा सकता है.
सारा विश्व अज्ञान में जीने के कारण दुःख के सागर में गोते लगा रहा है. अपेक्षाओं के कारण भी हम दुःखी हो रहे हैं. मिथ्या अभिमान के कारण धारणा बना लेते हैं कि जो चाहेंगे वे इच्छाएं पूर्ण हो जायंगी. किन्तु ऐसे शत-प्रतिशत कभी किसी की इच्छा पूर्ण नहीं होती और भौतिक स्तर पर सब कामनाओं की पूर्ति हो ही नही सकती. हम चाहते हैं कि सभी लोग व सभी परिस्थितियां हमारे ही अनुकूल हों, जो असम्भव है, क्योंकि कर्म करने में सब स्वतंत्र हैं. कर्त्ता तो कहते ही उसे हैं जो कर्तुम, अकर्तुम अन्यथा कर्तुम में स्वतंत्र हो अर्थात चाहे तो करे, न चाहे तो न करे या उल्टा करे. सब के अपने विभिन्न संस्कार और योग्यताएं होती हैं. प्रत्येक में जन्म-जन्मान्तर के संस्कार अलग-अलग हैं. ईश्वर ने कर्म का अधिकार तो सब को दिया है. अपने कर्तव्य का पालन करते नही हैं, दूसरों के कर्तव्य पर अपना अधिकार समझने लगते हैं. परिस्थितियाँ भी सब के लिए एक जैसी कभी नहीं हो सकतीं. कुम्हार को धूप चाहिए तो किसान को वर्षा. बाह्य जड़ व चेतन साधन हमारी ख़ुशी का स्रोत्र हैं, ये भी एक बहुत बड़ी मिथ्या धारणा है. बाह्य (भौतिक साधन) चेतन (सन्तान व परिवार) सब अनित्य हैं, जो स्वयं अनित्य, परिवर्तनशील हैं वे हमें क्या सुख देंगे. बड़ी विचित्र बात लगती है कि सब का रिमोट अपने हाथ में रखना चाहते हैं तो अपना रिमोट दूसरों के हाथों क्यों रख कर दुःखी हो रहे होते हैं.
आज मनुष्य स्वार्थी, व संकीर्ण बनता जा रहा है. सब सुख सामग्री अपने पास ही बटोर कर रखने का स्वभाव बनाता जा रहा है. विडम्बना तो यह है कि अपने दुःख से इतना दुःखी नहीं है, जितना दुःखी दूसरों के सुख से है. मनुष्य अपने अभाव से इतना दुःखी नहीं है, जितना दूसरे के प्रभाव से दुःखी होता है. अभाव उसे इतना नही अखरता जितना ये अखरता है कि दूसरों के पास क्यों है. अपने भीतर जलन की ज्वाला उत्पन्न कर के स्वयं ही जलता रहता है. दूसरों से जलन और दूसरों से व्यर्थ की आशाएं यदि ये दो चीज़ें हम छोड़ दें तो हम इस बहुमूल्य मानव जीवन को बहुत आनन्द से जी सकते हैं, अन्यथा व्यर्थ ही इसे खो देंगे. इसे इस दृष्टांत से भली प्रकार समझ सकते हैं– रामलाल और बाबू लाल दो वरिष्ठ नागरिक हैं. दोनों घनिष्ठ मित्र हैं, दोनों परस्पर सुख-दुःख के साथी हैं. रामलाल का अपने घर में कोई मान-सम्मान नही है उपेक्षित सा जीवन या यूं कहे तो अपने घर में कड़वे घूंट पी कर जीवन जी रहा है. वह सोचता है कि उस का मित्र बाबू लाल भी उस के ही समान उपेक्षित जीवन जी रहा होगा. लेकिन एक दिन जब उस का भ्रम टूटा, उसे पता चला कि मित्र तो बड़े मजे में बहुत ही सम्मान पूर्वक जिन्दगी गुज़ार रहा है तो अपने मित्र से कन्नी काटने लगा. उसकी छाती पर मानो सांप लोटने लगा हो. मित्र के साथ उस का व्यवहार ही एकदम बदल गया. बाबूलाल समझ गया कि उस का मित्र उस की सम्मानित जिन्दगी को नहीं पचा पा रहा है. बाबूलाल ने रामलाल को कहा देखो मित्र ! ऐसा नही है जैसा तुम समझ रहे हो. ये सब मेरे परिवार वाले तुम्हारे सामने नाटक कर रहे होते हैं. अब राम लाल को संतुष्टि हो गई कि केवल वो ही दुःखी नही है, उस का मित्र भी उसी के समान दुःखी है. ऋषि पतंजली सुंदर सा दृष्टिकोण देते हैं कि सुखी लोगों से मैत्री, दुखी पर करुणा, पुण्य आत्मा को देख कर प्रसन्नता और अपुण्य आत्मा की उपेक्षा कर देने से चित प्रसन्न रहता है. प्रसन्न चित से एकाग्रता होती है. एकाग्र चित से ध्यान लगता है और ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना में भी मन लगता है. जिस का फल ऋषि दयानन्द सरस्वती जी सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में लिखते हैं “सब दोष, दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव पवित्र हो जाते हैं. आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि वह पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी घबराता नहीं और सब को सहन करने का सामर्थ्य उसे ईश्वर प्रदान करता है.” यह तो हो नही सकता कि एकाग्र मन से ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना -उपासना करें और ईश्वर के आनन्द से वंचित रहें. यदि वंचित हैं तो देखें कि भूल कहाँ हो रही है. इस का कारण क्या है? शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत हो जाता है. अग्नि से शीत निवृत नही हो रहा तो इस का कारण है कि या तो अग्नि मंद है या फिर अग्नि से दूर बैठे हैं. इसी प्रकार ईश्वर ध्यान में ईश्वर के आनन्द की उपलब्धि नहीं हो रही तो कारण को जानें. कारण है अविद्या जिस कारण ईश्वर के स्वरूप को जाने बिना उपासना कर रहे होते हैं. यथार्थ ज्ञान से ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जान कर जब अपने हृदय में ईश्वर के सच्चे स्वरूप की उपासना करते हैं, तब ईश्वर ह्रदय में अच्छी तरह प्रकाशित हो कर अविद्या अन्धकार को नष्ट कर सुखी करते हैं.
मिथ्या ज्ञान (अविद्या) दुःख का मूल कारण है तो यथार्थ ज्ञान ही सुख का मूल कारण है. यथार्थ ज्ञान अर्थात जो पदार्थ जैसा है उस को वैसा ही जानना. जड़ को जड़, चेतन को चेतन, सुख में सुख और दुःख में दुःख को समझना. यथार्थ ज्ञान से ईश्वर, जीव, प्रकृति को अलग-अलग जान लेना ही दुःख नाश करने का उपाय है. योग के आठ अंगों को व्यवहार में लाने से यथार्थ ज्ञान का विकास होता है और अविद्या आदि दोषों का नाश होता जाता है. मिथ्या ज्ञान का हटना ही दुःख का निवारण है.
ईश्वर से प्रार्थना है:
“दूर अज्ञान के हों अँधेरे, तू हमें ज्ञान की रोशनी दे.
हर बुराई से बचते रहें हम, जितनी भी दे भली जिंदगी दे,”
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः I
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुःख भाग भवेत् II
राज कुकरेजा / करनाल

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