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मातृ दिवस (Mother Day)

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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मातृ दिवस (Mother’s Day)
गत कुछ वर्षों से कई दिवस (Day’s) मनाने की परम्परा चल पड़ी है।इन दिवसों में मातृ दिवस मई मास के दूसरे सप्ताह के रविवार को मनाने का प्रचलन है।इन दिनों का निर्धारण कौन करता है और किस आधार पर करता है,यह तो हमारे जैसे सामान्य जन नहीं जानते पर इन सभी दिनों को मनाने का विशेष उद्देश्य है,अपने प्रियजनों की स्मृति जो वर्ष भर मन में संजोए रखते हैं, आज के दिन व्यक्त करने का अवसर उपलब्ध होता है।बच्चे अपनी माता के प्रति श्रद्धा भाव प्रगट करते हैं और उपहारों का आदानप्रदान करने की परम्परा भी है, यह अच्छी परम्परा है। देखा जाए तो यह कोई नई परम्परा नहीं है, पितृ यज्ञ का यह छोटा सा रूप है। हमारे ॠषिओं ने प्रत्येक गृहस्थी के लिए दैनिक कर्मों में पंच महायज्ञो के करने का विधान बनाया है, उनमें एक पितृ यज्ञ है जिस का भाव है जीवित माता-पिता की सेवा करना और तर्पण अर्थात् उनके जीवन में किसी भी प्रकार का अभाव न हो इसका विशेष ध्यान रखना होता है। वैदिक मान्यता के अनुसार मातृ दिवस केवल एक ही दिन का न होकर वर्ष के पूरे 365 दिन का होता है। एक दिन का प्रचलन इस लिए किया गया है कि यदि किसी कारणवश अथवा अपने आलस्य प्रमाद के कारण अपने कर्तव्य का पालन यथावत नहीं हो सका तो आज के दिन अपनी भूल व त्रुटि का सुधार कर लिया जाए और भविष्य के लिए सतर्क हो जाएं।
वात्सल्य से परिपूर्ण जो है, यह ममतामयी माँ की पहचान है। माँ जब शिशु को जन्म देती है तो जननी कहलाती है और जब पालन करती है तो माता बन जाती है। इस सत्यता से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता कि माँ सभी की होती हैं परन्तु सभी मांएं एक जैसी भी नहीं होती हैं। माता के रूप में बालक के प्रति उसके दायित्व बहुत अधिक होते हैं जिनका निर्वाह उसे बड़ी ही सूझ-बूझ से करना होता है। नन्हा शिशु तो जन्म के समय अबोध अवस्था में होता है,जिसे माँ जैसे भी संस्कार देना चाहे दे सकती है।माता बालक की प्रथम गुरु है और बालक के भविष्य की निर्मात्री है।माँ को ईश्वर का छोटा रूप कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। ईश्वर के समान माँ दयालु और न्यायकारी है मन में बालक के प्रति अति करूणाशील और बालक यदि कोई भूल करता है तो दण्ड दे कर सुधार करने में कहीं भी चूक नहीं करती। बालक को सुसंस्कारी बनाने में माँ की सर्वोच्च भूमिका होती है। यह भूमिका सभी माए एक जैसी नहीं निभा सकती। माँ की सबसे बड़ी कमजोरी है उसका मोह,और मोहवश कई बार न चाहते हुए भी बालक का अहित कर बैठती हैं और जब पश्चाताप करने का समय आता है तो बहुत विलंब हो चुका होता है। इस लिए कहा है कि सभी माँएएक जैसी नहीं होती है।
आज समाज को बड़ी ही विकट परिस्थिति का सामना करना पड़ रहा है।वृद्ध आश्रमों में वृद्ध माता-पिता अपनी जीवन की संध्या गुज़ारने को विवश हो रहे हैं और दोषी अपने ही बच्चों को मान रहे हैं।तनिक विचार करें कि क्या बच्चे सचमुच दोषी हैं? नहीं बच्चे दोषी कदापि नहीं हो सकते हैं।बच्चे स्वयं अपने आप संस्कारी नहीं बन सकते हैं, हम माता- पिता जैसा बनाना चाहते हैं वे वैसे ही बन जाते हैं।हम में से अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों को केवल भौतिक शिक्षा जिससे अधिकाधिक धन उपार्जन करके सुख- सुविधाओं के साधनों के भंडार जुटा सकें देते हैं और दिलवाते हैं।आध्यात्मिक विद्या से बालकों को प्राय: वंचित रखा जाता है।यही बालक बड़े हो कर माता- पिता को जब भौतिक तराज़ू से तोलते हैं तो हम उन्हें सहन नहीं कर पाते हैं और भूल जाते हैं कि जैसी फ़सल लगाई जाती है वैसी ही काटी भी जाती है। आध्यात्मिक विद्या से भी अपने बच्चों को सुसंस्कारी बनाने का प्रयास भी करें।
समय का चक्र बड़ी ही तीव्र गति से चलता है। देखते ही देखते बच्चे कब बड़े हो जाते हैं कि पता ही नहीं चलता। कल जिस बच्चे को उसकी ऊंगली पकड़ कर चलना सिखा रहे थे, आज वही बच्चा माता-पिता की लाठी बन जाता है और यह दिन माता-पिता के जीवन का सबसे सुखद अनुभव का होता है और अविस्मरणीय भी।
मातृ दिवस के उपलक्ष में युवा वर्ग के साथ अपने कुछ अनुभव साँझा करना चाहती हूँ ।ये अनुभव मेरी अपनी मां के जीवन से जुड़े हुए हैं,आज मेरी माँ हमारे मध्य नहीं है और आज पूरे पाँच महीने हुए हैं, वे अपनी सांसारिक यात्रा पूरी करके सदैव के लिए विदा हो गई हैं। मैंने उनके जीवन काल में बहुत कुछ जानने का प्रयास किया कि इस काल में व्यक्ति अपने ही बच्चों से क्या – क्या अपेक्षा रखता है। मैंने जाना कि वृद्ध अवस्था में व्यक्ति की दैनिक आवश्यकताएँ बहुत ही कम होती हैं, शरीर की शक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण हो रही होती है परन्तु स्मृतियों का भंडार होता है जिसे वह अपने ही बच्चों के साथ सांझा करना चाहती है औऱ चाहती है कि उस के बच्चे उसके पास बैठे और उसकी बातों में रूचि लें। वृद्ध अवस्था में बात को भूलने का भी स्वभाव बन जाता है। एक ही बात को बार – बार भी बताने में उन्हें अच्छा लगता है लेकिन युवा वर्ग उनकी भावनाओं को नहीं समझते तो उन्हें ठेस पहुंचती है इसलिए इस बात का विशेष ध्यान दें कि इस समय यदि हो सके तो समयानुसार उनसे वार्तालाप अवश्य ही करते रहें। मैं तो केवल इतना जानती हूँ कि सब की माँ होती है और सभी की माँ मे अपने स्तर पर कुछ कमज़ोरियाँ व दुर्बलताएँ भी। होती हैं पर अपनी माँ ही अपने बच्चों को प्यारी होती है और अपने बच्चे ही माँ की आँखों के तारे होते हैं।सच कहा गया है- ”माँ पृथ्वी है, जगत है, धुरी है। माँ बिना इस सृष्टि की कल्पना अधूरी है। माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता । माँ जैसा दुनिया में कोई और हो नहीं सकता”।

ममतामयी माँ को हम सभी उनके बच्चे, पोते- पोतियाँ, नाती- नातिनें बड़ी ही श्रद्धा के साथ शत्- शत् नमन करते हैं।
राज कुकरेजा/ करनाल

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