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ईश्वर सर्वव्यापक है।

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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ईश्वर सर्वव्यापक है।

ईश्वर सर्वव्यापक है,बड़ा ही सरल अर्थ है कि ईश्वर सब स्थान में विद्यमान है।समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग मूर्ति पूजा करता है, उनकी मान्यता का आधार भी यही है कि ईश्वर मूर्ति में भी विद्यमान है।सर्वव्यापक पर चर्चा हो रही थी तो एक बंधु ने प्रश्न उठाया कि आप लोग मूर्ति पूजा का विरोध क्यों करते हैं जबकि सर्वव्यापक होने से ईश्वर मूर्ति में भी है, यह तो सच है ही कि मूर्ति में भी ईश्वर विद्यमान है, इस सत्य से कोई भी व्यक्ति जो थोड़ा सा भी आर्य समाज से सम्पर्क रखता है,विरोध नहीं कर सकता और न ही करेगा। विरोध तो इस बात का है कि मूर्ति ईश्वर नहीं है।सुनने में और समझने में बड़ा ही अटपटा सा लगता है कि मूर्ति में ईश्वर है पर मूर्ति ईश्वर नहीं है।इसे स्थूल दृष्टान्त द्वारा समझने में सुविधा होगी -घड़े में जल है,जल घड़ा नहीं है,अलमारी में सामान है, सामान अलमारी नहीं है, तपते लोहे में अग्नि है, अग्नि लोहा नहीं है, ठीक इसी प्रकार मूर्ति में ईश्वर है परन्तु मूर्ति ईश्वर नहीं है।इस प्रकार के संबंधों को व्यापक – व्याप्य संबंध कहा गया है।जगत में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जिसमें व्यापक- व्याप्य संबंध न हो।ईश्वर व्यापक है और समस्त ब्रह्माण्ड व्याप्य इस प्रकार है जैसे लोटा नदी में डुबा है, जल लोटे के भीतर भी है और बाहर भी है।व्यापक और व्याप्य संबंध को न समझना सबसे बड़ी अज्ञानता है।मूर्ति में ईश्वर की व्यापकता को स्वीकार करते हैं, मिथ्या प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं और मंदिर में उसे प्रतिष्ठित कर देते हैं,मंदिर एक पवित्र स्थान बन जाता है, यहाँ पाप कर्म करने का निषेध है,इस प्रकार सर्वव्यापक ईश्वर से स्थान व काल की दूरी बना लेते हैं।यह अज्ञानता, स्वार्थ और दुष्ट बुद्धि भावना है।इस भावना से दुकानदार व कई अन्य व्यवसायी भी अछूते नहीं है, दुकानों मे भी छोटे-छोटे मंदिर बना रखे हैं और प्रात:जब दुकान खोलते हैं, तब सर्वप्रथम मूर्ति के सामने दीप व अगरबत्ती जलाते हैं, मूर्ति को नमस्कार करके अपना ग्राहकों के साथ झूठ और छल- कपट का व्यापार-धंधा प्रारंभ करते हैं।
समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग जो वैदिक शास्त्रों के सूक्ष्म सिद्धांतों से अनभिज्ञ है और अनेक मत, पंथ, सम्प्रदायों की संकुचित सीमाओं में बँधे हुए हैं, ईश्वर के सर्वव्यापक रूप को नहीं समझते हैं।ऐसे अज्ञानी लोगों का ईश्वर क्षीर सागर,चौथे आसमान, और पाँचवे आसमान में रहता है।इन दिनों ब्रह्मकुमारिज का प्रचार ज़ोरों पर है।इनका ईश्वर परम आत्मा है, इस लिए वह परम धाम में रहता है।सर्व व्यापक ईश्वर को एक देशीय बना दिया है।एक बहन जो आजकल पूर्णत: ब्रह्मकुमारिज को समर्पित है, उसके साथ जब सर्व व्यापक की चर्चा चली तो बोली -छी: छी:आप लोग तो ईश्वर को निकृष्ट पदार्थों व निकृष्ट योनिओं में कैसे मान सकते हो।यदि बहन गर्भ का अर्थ जानती तो वेद विरूद्ध बात न करती।पूरे ब्रह्माण्ड में ईश्वर व्यापक है तो पूरा ब्रह्माण्ड ही ईश्वर का गर्भ है और हम सब प्राणी ईश्वर की बनाई हुई प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियाँ हैं।सारा ब्रह्माण्ड उस विराट प्रभु के विराट शरीर में स्थित है और वह प्रभु भी सब के भीतर -बाहर ओत-प्रोत है, समस्त ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी दिखाई या सुनाई दे रहा है, वह सभी परमात्मा से व्याप्त है। वस्तुत: जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु आकाश में है और प्रत्येक वस्तु में आकाश है, उसी प्रकार ईश्वर वस्तुओं मे व्याप्त है।ये वैदिक सिद्धांत ब्रह्मकुमारिज के धर्माधिकारी अपने अनुयायियों को बताते ही नहीं हैं, इसके विपरीत इन्हें उल्टे संस्कारों की खूँटी से बाँध देते हैं कि वैदिक सिद्धांतों को ये सुनना ही नहीं चाहते। इनके धर्माधिकारी न तो वेदों को मानते हैं और न ही वेदों के प्रमाण को मानते हैं। इनका अपना मत जो सिद्धांत हीन है, उसका प्रस्तुतीकरण बहुत बढ़िया ढंग से करते हैं। आजकल मार्केटिंग का ज़माना है,मार्केटिंग का गुर है कि कैसे घटिया सामान को सुन्दर पैकिंग द्वारा उपभोक्ता को पहुँचाया जाए, इस प्रकार बढ़िया मार्केटिंग द्वारा सिद्धांत हीन बातें लोगों तक पहुँचाई जा रही हैं।एक बुद्धजीवी ने इनसे शंका का समाधान करना चाहा कि आप लोग वेद व वेद के प्रमाण को नहीं मानते परन्तु जिन पुस्तकों को प्रमाण रूप में मानते हो, उन पुस्तकों में तो लिखा मिलता ही है कि ईश्वर सर्व व्यापक है तो ब्रह्मकुमारिज ने बड़ा ही हास्यास्पद उतर दिया कि इन पुस्तकों के लेखक त्रिकालदर्शी थे वे जानते थे कि मनुष्य कलयुग में बहुत अधिक पाप कर सकता है और इस पाप वृत्ति से बचाने के लिए कह दिया जाता है कि ईश्वर सर्वव्यापक है,वह हमें देख रहा है ताकि भय के कारण पाप कर्म से बचा जा सके। वास्तव में ईश्वर सर्वव्यापक है नहीं ।यहाँ कितना बड़ा विरोधाभास है कि सत्य की परिभाषा ही बदल डाली।सत्य तो सार्वकालिक होता है।सत्य का स्वरूप कभी भी नहीं बदलता है।मन से जैसा विचार किया जाए,वाणी से वैसा ही बोला जाए और वैसा ही क्रिया में लाया जाए,वही सत्य होता है।
आज सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि लोग ईश्वर को सर्वव्यापक स्वीकार नहीं करते हैं,कारण कि ईश्वर इन्द्रिय गोचर नहीं है, हम उसे नहीं देख पाते इस लिए ईश्वर की सत्ता में प्राय: भ्रम व संशय उठाते रहते हैं।ऋषि दयानंद सरस्वती जी सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं कि ईश्वर सर्व व्यापक है क्योंकि जो एक देश में रहता तो ईश्वर सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वनियन्ता,सब का स्रष्टा, सबका धर्ता और प्रलयकर्ता नहीं हो सकता।क्योंकि अप्राप्त देश मे कर्ता की क्रिया का होना असमंभव है।जहाँ -जहाँ क्रिया होगी वहाँ – वहाँ कर्ता अवश्य ही होगा,चूँकि क्रिया सर्वत्र हो रही है अत: ईश्वर सर्वत्र व्यापक है। ऋषि पतंजलि जी योग दर्शन में समाधियोग की चर्चा करते हैं, यह योग की बहुत ही ऊँची अवस्था है।इस अवस्था में ही योगी ब्रह्म का साक्षात्कार करता है।ईश्वर को सर्वव्यापक मान कर ही समाधियोग की सिद्धि हो सकती है अन्यथा नहीं हो सकती है।योगी मानता है कि यह सब ब्रह्म ही है,मन से सभी दिशाओं की परिक्रमा करता है तो पाता है कि आगे ब्रह्म है, पीछे ब्रह्म है,दाएँ ,बाएँ ,ऊपर, नीचे सर्वत्र ब्रह्म ही फैला हुआ है।ज्ञानी को सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म दिखाई देता है तो बोल उठता है “जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है।”
हमारे किए गए कर्मों का फल जो ठीक-ठीक देता है, वह न्यायकारी होता है। जो कर्ता को उसके कर्मों के अनुसार न अधिक, न न्यून फल मिलता है उसे न्याय कहते हैं। सर्वव्यापक ईश्वर ही न्यायकारी हो सकता है क्योंकि वह हम जीवों के कर्मों का दृष्टा है।ईश्वर हमारे मन, वाणी व शरीर से किए जा रहे कर्मों को निरन्तर देख, सुन व जान रहा है। सर्वव्यापक ईश्वर की सत्ता में दृढ़ विश्वास रखने से ही व्यक्ति अपराधों से बचा रहता है।ज़रा विचार करके देखे कि “ईश्वर बड़ा या सी.सी.वी कैमरा” आज कल लिखा होता है,”आप कैमरे की नज़र में है “यह पढ़ते ही व्यक्ति सतर्क हो जाता है, और चोरी व अन्य किसी भी प्रकार के दुष्कर्म को करने से बच जाता है। जबकि ये मनुष्य द्वारा बनाया एक उपकरण मात्र है।इस उपकरण का भी कई बार दुरुपयोग किया जाता है,अपराधी पकड़ में नहीं आते।हम भूल जाते है कि हम हर समय ईश्वर की नज़र में हैं, और ईश्वरकी नज़र न ख़राब होती है, न बंद होती है, न किसी के नियंत्रण मे होती है, तात्पर्य कि बचने का कोई तरीका नहीं है।ध्यान रहे हम सदैव सर्वत्र ईश्वर की नज़र में है ।
आज पूरा विश्व अशान्त है।चारों ओर भय का वातावरण बना हुआ है। सभी असुरक्षित भावना की चपेट में हैं।समाचार पत्र मुख्य पृष्ठ से अन्तिम पृष्ठ तक असामाजिक घटनाओं के समाचार से भरा रहता है।दूरदर्शन के सभी चैनलों पर भी ऐसे ही घृणित कुकर्मों की सूचि प्रसारित हो रही होती है।ज़रा ध्यान पूर्वक सोचें तो इस सब का कारण समझ में आ सकता है क्योंकि कोई भी कार्य बिना कारण नहीं होता है।ईश्वर के सच्चे स्वरूप को ही न जानना और न ही मानना मूल कारण है।यदि जीवन में सच्चा सुख व शान्ति चाहिए तो मन व बुद्धि मे हर क्षण अनुभूति बना लें कि ईश्वर सर्वव्यापक है,हम सभी जीवों के कर्मों का दृष्टा है।किए गए कर्मों के अनुरूप ही ईश्वर हमें सुख-दु:ख देता है।इस प्रकार की भावना बन जाने पर व्यक्ति पाप कर्मों से बचा रहता है।ईश्वर से प्रार्थना है- “धियो योन: प्रचोदयात् “- हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ कर्मों की ओर प्रेरित करो।
राज कुकरेजा/ करनाल

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