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पितृ दिवस (Father’Day)
पारिवारिक संबंधों को सुदृढ़ बनाने के लिए दिवसों के मनाने का प्रचलन है।मई मास के दूसरे रविवार मातृ दिवस और पितृ दिवस जून मास के तीसरे रविवार को आयोजित किए गए हैं। इन दोनों दिवसों की तिथियों का चयन बड़ी बुद्धिमत्ता से किया गया है। चूंकि माता प्रथम देव कोटि में आती है, तो मातृ दिवस का आयोजन पितृ दिवस से पूर्व रखा गया है माता-पिता का अपनी संतान के साथ और संतान का माता-पिता के साथ अनूठा और अटूट संबंध होता है जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता, केवल अनुभव ही किया जा सकता है।
माता-पिता मूर्तिमान देव हैं जिनके संग से मनुष्य देह की उत्पत्ति, पालन, सत्य शिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती है। पिता से अच्छा मार्ग दर्शक कोई और हो ही नहीं सकता,जो समय -समय पर अच्छी और बुरी बातों का आभास करा कर सदैव सावधान करता है एवं आगे बढ़ने की सीख देता है उत्साह बढ़ाता हैं। हर बच्चा अपने पिता से ही सारे गुण सीखता है जो उसे जीवन भर परिस्थितियों के अनुसार ढलने के काम आते हैं। पिता का हृदय कितना विशाल होता है, जो संतान के कृतघ्न होने पर भी पिता उसे प्यार करता है और संतान कितनी जल्दी पिता के प्यार व त्याग को भूल जाती है। यही सबसे बड़ी विडम्बना है।
अलग अलग स्वभाव के लोग पितृ दिवस के अवसर पर अपने अलग अलग विचार व्यक्त करते हैं। इन लोगों का मानना है कि जीवन के प्रत्येक क्षण और श्वास को समर्पण करके भी हम मातृ-पितृ ॠण से उऋण नहीं हो सकते इस वातस्लय के अथाह सागर को एक दिन में कैसे और क्यों बांध दिया है। यदि आज पितृ दिवस है तो ऐसा कौन सा दिन पिता के बिना है।इस से मिलता जुलता प्रश्न एक सज्जन ने किया कि भाई! यह फादर्स डे क्या कोई विशेष होता है, कहाँ लिखा है कि बस एक दिन पिता को याद कर लो, कोई उपहार दे दो या उसका फोन करके हाल चाल पूछ लोऔर परस्पर पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ दे दो, फिर वर्ष के 364 दिन उसे भूल जाओ। ऐसे विचारों वाले लोगों को समझना है कि माता-पिता के प्रति श्रद्धा भाव तो वर्ष के 365 दिन ही हैं, इसमें कोई मतभेद हो ही नहीं सकता परन्तु मातृ दिवस पितृ दिवस तो स्मृति दिवस हैँ और इस दिन आत्मविशलेशण करना होता है कि माता-पिता के प्रति जो हमारे कर्तव्य कर्म हैं उन को करने में कहीं आलस्य प्रमाद, भूल व त्रुटि तो नहीं हुई है यदि हो गई तो सुधार करने का अवसर आज है।ठीक उसी प्रकार जैसे विद्यार्थी वर्ष भर पढ़ाई करता है और फिर वर्ष में एक बार वार्षिक परीक्षा देता है, इस को भी विद्यार्थी की परीक्षा के समान ही समझना चाहिए ।
परिस्थितियाँ बदल रही हैं। भौतिक सुखों की प्राप्ति के भरसक प्रयास किए जा रहे हैं और नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है परिणाम माता-पिता को भुगतना पड़ रहा है कि अपनी ही संतान से उपेक्षित हो कर वृद्ध आश्रमों में जीवन की संध्या गुज़ारने को विवश हो रहे हैं। इन लोगों की संतान से इतना निवेदन अवश्य करना चाहती हूँ कि पितृ दिवस के अवसर पर जितना प्यार फेसबुक पर और वटस्एप पर आप बच्चों का उमड़ रहा होता है इस का कुछ अंश भी यदि वास्तविक जीवन में उमड़ जाए तो देश के सभी वृद्ध आश्रमों में ताला लटका हुआ मिले।
अपने पिता के प्रति श्रद्धा व विश्वास को और आभार को प्रदर्शित करने के लिए फादर्स डे सबसे बड़ा अच्छा अवसर है।मेरे पिता जी जिन्हें हम लालाजी से सम्बोधित करते हैं आज हमारे मध्य नहीं हैं परन्तु उनकी स्मृति सदैव हमारे दिल में समाई हुई है। लाला जी ने विधिवत शिक्षा नहीं ली थी। वे केवल उर्दू पढ़े थे और छोटी सी आयु में अपना व्यवसाय प्रारंभ किया औऱ शीघ्र ही उनकी गणना प्रतिष्ठित व्यवसायिओं में होने लगी और सेठ उत्तम चन्द के नाम से शहर में अपनी पहचान बना ली। भाग्य को कुछ और ही मंजूर था, 1947 में भारत का विभाजन हो गया और हमारा शहर पाकिस्तान में आ गया और अपनी सारी चल अचल संपत्ति को पाकिस्तान में छोड़कर जान बचा कर परिवार सहित भारत आ गए।विभाजन की असहनीय पीड़ा को सहन करना कोई आसान काम न था और दूसरा कोई विकल्प भी तो नहीं था।नए सिरे से व्यवसाय को स्थापित करना,पारिवारिक जिम्मेवारियाँ, बच्चे बड़े हो रहे थे उनकी दैनिक आवश्यकताएँ बढ़ रही थी उन्हें शिक्षित करना था और व्यवसाय के लिए पूंजी जुटाने का काम भी आसान काम न था, कहने का भाव है कि चारों ओर परेशानियों ने घेर लिया था लेकिन धैर्य के साथ गृहस्थी की गाड़ी चलाते रहे।
आर्य समाज और महात्मा प्रभु आश्रित जी के सम्पर्क में आने से पूर्व लाला जी का पूरा परिवार मूर्ति पूजा करता था और घर में मांसाहार का भी प्रचलन था। ॠषि दयानंद सरस्वती जी के सच्चे अनुयायी बनें और भली प्रकार समझ लिया कि मूर्ति पूजा असत्य के साथ पाखंड भी है, जिसके द्वारा जनता को भ्रमित करके उनका धन लूटा जा रहा है।मूर्ति पूजा छोड़ दी और
ईश्वर के सच्चे स्वरूप की उपासना परिवार में होने लगी, एक ओर मांसाहार छोड़ने का व्रत लिया,तो दूसरी ओर घर में दैनिक यज्ञ करने का व्रत लिया और दोनों व्रतों का पालन जीवन पर्यन्त किया।स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उनका मानना था कि शिक्षा जितनी बेटे के लिए आवश्यक है बेटी के लिए भी उतनी ही आवश्यक है। हमारे शहर में उन दिनों एक ही कालेज था जहाँ सहशिक्षा थी और लड़कियों को सहशिक्षा वाले कालेज में पढ़ने कोई नहीं भेजता था परंतु उन्होंने हमें कालेज में दाखिला दिलवा दिया, इसके लिए उन्हें परिवार और समाज की कटु आलोचना का शिकार भी होना पड़ा जिसकी उन्होंने तनिक भी परवाह नहीं की। वे राशिफल, जन्म पत्री, कुण्डली मिलान और विवाह आदि अवसर पर तिथि, मुहूर्त निकलवाने में विश्वास नहीं करते थे और मानते थे कि सभी दिन शुभ होते हैं और सुविधा अनुसार तिथि तय कर लेनी चाहिए। यह मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे लाला जी के ये संस्कार धरोहर रूप में मिले हैं।
लालाजी सदैव मेरे आदर्श पुरुष रहे हों, ऐसा मेरी स्मृति में नहीं है क्योंकि बचपन में बालबुद्धि के कारण मैं भी उन्हें भौतिक साधनों के तराजू में तोलती रहती और जिन बच्चों के पास जितने साधन अधिक होते, उनके पिता अधिक अच्छे लगते और दूसरी ओर लालाजी का हर समय कुछ न कुछ समझाते ही रहना अच्छा नहीं लगता था और अब जब बुद्धि परिपक्व हो गई है तो उनके प्रति धारणाएं भी बदल गई हैं और समझ आ गई है कि माता-पिता के जैसा अपने बच्चों का हितैषी कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। सच यह भी है कि जिस पर पिता का हाथ होता है,वो दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान होता है।
किसी ने बड़े सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है
“ पिता का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता।
पिता जैसा दुनिया में कोई और हो नहीं सकता।। “
पितृ दिवस के अवसर पर सभी बच्चों के लिए एक संदेश –
पता नहीं चलता बच्चे कब बड़े हो जाते हैं।
पता नहीं चलता पिता कब वृद्ध हो जाते हैं।।
पिता वृद्ध आश्रम की नहीं घर की शोभा हैं।
पिता सम्मान के पूरे अधिकारी हैं।
आप सब को पितृ दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभ कामनाएँ ।
राज कुकरेजा /करनाल
Twitter @Rajkukreja16
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