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गुरू पूर्णिमा (भाग१)

चिंतन के क्षण
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गुरु पूर्णिमा ( भाग1)

आषाढ़ मास की पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा के नाम से जानी जाती है. इस दिवस को गुरु महोत्सव के रूप में मनाने की परम्परा प्राचीन काल से आ रही है. चन्द्र के समान यह सुंदर दिवस गुरु के प्रति आभार प्रकट करने का दिवस है. यह परम्परागत पर्व गुरु-शिष्य के सम्बन्ध पर आधारित है. आर्य समाज के मंच से इस पूर्णिमा की प्रायः चर्चा बहुत ही कम होती है और आर्य समाज से सम्बन्ध रखने वाली पत्र-पत्रिकाओं में भी इस का कम ही उल्लेख किया जाता है. इस लिये जन साधारण में एक मिथ्या धारणा बनी हुई है कि आर्य समाज गुरु को ही नहीं मानता. उन का ऐसा विचारना सिद्ध करता है कि ये लोग गुरु और गुरुडम के भेद को ही नहीं समझते.गुरु और शिक्षक के अर्थो की परिभाषा को भी सीमित कर दिया गया है. आज की परिभाषा में गुरु वह है जो अपने शिष्यों को गुप्त मन्त्र देता है, शिक्षक वह है जो विद्यालय में अक्षर ज्ञान देता है.
गुरु शब्द दो वर्णों के मेल से बना है. गु का अर्थ है अंधकार और रु का अर्थ है दूर करने वाला. संस्कृत में गृ शब्दे इस धातु से गुरु शब्द बनता है. स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के अनुसार “यो धर्म्यान् शब्दान् गृणात्युपदिशति स गुरुः” ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने गुरु के सीमित अर्थ को विस्तृत रूप दिया है. उन के अनुसार गुरु जो मार्ग बताये और मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी दे. गुरु वो है, जो कठिन से कठिन उलझी बात या रहस्य को सरलता से कह दे. अज्ञानता के अंधकार को दूर करे, प्रकाश के मार्ग पर ले चले. गुरु वह कवच है जिस के पास शिष्य अपने आप को सुरक्षित अनुभव करता है. गुरु मानव जाति के सुंदर व सुगन्धित पुष्प होते हैं तथा प्रकाश व वायु की तरह भेद-भाव से रहित हो कर सब के लिए समान होते हैं. गुरुजनों की शिक्षा से सब को सुख बढ़ता है. जो सत्य, न्याय, यथार्थ, दुःख रहित सुख और सकल विद्यायुक्त उपदेश करता है, उसे गुरु कहते हैं. जो भी ज्ञान देता है, विद्या देता है, रक्षा करता है वह गुरु कहलाता है. ईश्वर भी हमें ज्ञान देता है, हमारी रक्षा करता है, इसलिए ईश्वर भी हम सब का गुरु है. ईश्वर हमारा प्रथम गुरु है. योग दर्शन के रचियता ऋषि पतंजलि जी योग दर्शन में इस सूत्र से स्पष्ट करते हैं.-
स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ||

ईश्वर मनुष्यों को सृष्टि के आदि में अपना नित्य अनादि ज्ञान ऋषियों के हृदय में प्रकाशित करता है. परमेश्वर सृष्टि के आदि से ले कर अब तक जितने भी ऋषि, आचार्य, शिक्षक, अध्यापक, उपदेशक इत्यादि गुरु हुए हैं तथा जो आगे होंगे, उन सब का भी गुरु है. क्योंकि वह काल से कभी नष्ट नहीं होता, वह अमर है. इसी प्रकार से वह पिछली सृष्टियों में भी सब का गुरु था और आगे आने वाली सृष्टियों में भी सब का गुरु रहेगा. इस लिए सब मनुष्यों को चाहिए कि ईश्वर को ही अपना गुरु माने. कोई भी मनुष्य बिना ज्ञान प्राप्त किये विद्वान नहीं हो सकता.

माता-पिता, आचार्य, शिक्षक सब गुरु की श्रेणी में आते है क्योंकि बालक प्रथम ज्ञान इन से प्राप्त करता है. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी सत्यार्थ प्रकाश द्वितीये समुल्लास में लिखते हैं ” जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे, तभी मनुष्य ज्ञानवान होता है. वह कुल धन्य और सन्तान बड़ा भाग्यवान है जिस के माता-पिता धार्मिक और विद्वान् हों. जितना माता से संतानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है, उतना किसी से नहीं “. बालक माता के गर्भ काल से ही संस्कार ले रहा होता है. माता बालक की प्रथम गुरु है. जब माता-पिता एवं आचार्य अच्छी प्रकार की शिक्षा देते हैं तो व्यक्ति शिक्षित व विद्वान् बनता है. बालक के व्यक्तित्व के निर्माण में माता-पिता आचार्य अर्थात शिक्षक का विशेष योगदान होता है. बालक का स्वाभाविक ज्ञान अल्प होता है. उसे नैमितिक ज्ञान की आवश्यकता होती है. जिस के पास पहले से ही ज्ञान हो, वह ही अन्यों को ज्ञान दे सकता है. माता-पिता एवं आचार्यो के ज्ञान का स्तर बालक के ज्ञान के स्तर से काफी ऊंचा होता है. बालक प्रथम पांच वर्ष माता और तीन वर्ष पिता से शिक्षा पाता है. तदुपरांत बालक पाठशाला में शिक्षक से अक्षर ज्ञान प्राप्त करता है और गुरु छात्रों की समस्या के समाधान करने को सर्वदा उद्यत रहता है. प्रचीन काल पर यदि दृष्टिपात करें तो गुरु और शिष्य के सम्बन्ध कितने मधुर थे जानने को मिलता है. शिष्य गुरु के परिवार का एक अंग होता था. गुरु और शिष्य के सम्बन्ध पिता-पुत्र के समान थे, यह इस मन्त्र से विदित होता है, जिसका पाठ दोनों मिल कर करते थे.-
औ३म् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्य्यं करवावहै |
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै |}}
औ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||

जिस का भाव है कि गुरु शिष्य परस्पर एक दूसरे की रक्षा करें. परस्पर भोग्य पदार्थों का भोग करे, परस्पर एक दूसरे का बल बढ़ाएं. परस्पर एक दूसरे की पढ़ी-पढाई विद्या को बढ़ाएं और कभी परस्पर द्वेष न करें. आज भी कई गुरुकुलों में गुरु और शिष्य अपने अध्ययन से पूर्व मिल कर इस मन्त्र का पाठ करते हैं.
विचार का बिंदु है कि क्या मनुष्य ज्ञानवान हो रहा है और हमारे कुल और हमारी सन्तान स्वयं को धन्य समझ रही है. यदि नहीं तो कारण स्पष्ट है कि तीनों माता-पिता और आचार्य इस के दोषी हैं.क्या माता-पिता बालक के चरित्र का निर्माण कर रहे हैं ? क्या आचार्य बालक को अच्छा नागरिक बना कर राष्ट्र का निर्माण कर रहा है? इन प्रश्नों का उत्तर तो माता-पिता व शिक्षक ही दे सकता है।आध्यात्मिक क्षेत्र में धर्म गुरु मुख्य भूमिका निभाते हैं. जब धर्म गुरु स्वयं ही गलत रास्ते पर चलते हैं, तो दूसरे तो चलेंगे ही. ऐसे धर्म गुरुओं से दूर रहें जो अपने आपको भगवान बताते हैं और ऐसे अज्ञानियों की बातों में न आ जाएँ जो जन्म लेने वालों को भगवान बना कर अपने स्वार्थ और धंधों के लिए उसे आगे लाते हैं. समाज को ढोंग, आडम्बर, पाखंड और अंधविश्वास में ढकेलने वाले गुरुओं से सावधान रहना चाहिए.
वर्तमान काल में ऐसे शरीर धारी गुरु हैं जो स्वयं को भगवान बता कर जनता से अपनी पूजा करवाते हैं और अज्ञानता के कारण लोग भी ईश्वर की पूजा छोड़ देते हैं. यह एक अंधी परम्परा कल पड़ी है जिसे भेड़चाल ही कहा जा सकता है, अंधे के पीछे अंधे चलेंगे तो दुःख ही पायेंगे. विडम्बना तो यह है कि दुःख पा भी रहे हैं परन्तु शरीर धारी गुरु पर अंध श्रद्धा को छोड़ नहीं पा रहे. शरीरधारी गुरु को ईश्वर से ऊंचा स्थान देते हुए भी जरा भी संकोच नहीं करते. नहीं समझते कि उन का यह व्यवहार ईश्वर के प्रति घोर अन्याय ही माना जाएगा. ईश्वर के तो तुल्य कोई नहीं है फिर ईश्वर से ऊंचा स्थान शरीर धारी गुरु को देना सब से बड़ी अविद्या नहीं तो और क्या है. ईश्वर तो हम सब का प्रथम गुरु है क्योंकि सृष्टि में मनुष्य ने प्रथम ज्ञान ईश्वर से ही पाया है परन्तु ईश्वर के बाद मनुष्य को ज्ञान देने वाले बहुत होते हैं. जो जितना ज्ञान देता है, वह उतने अंश में उस का गुरु है. विद्यालय, महाविद्यालय में बालक अलग-अलग गुरुओं से अलग-अलग विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है. इन गुरुओं के प्रति आदर-सत्कार के भाव न रखना, इन के प्रति घोर अन्याय है. कई बार बालक भी माता-पिता व अपने से बड़ों को ज्ञान देता है. आज कई बालक अपने माता-पिता व बड़ों को कम्प्यूटर सिखा रहे हैं. बालक भी उन के गुरु हैं . ईश्वर और अन्य सभी गुरुओं को छोड़ कर केवल शरीर धारी गुरु की पूजा करना सर्वदा अनुचित है, अन्याय है और घोर पाप है.

आज विद्यालयों में भौतिक विज्ञान की शिक्षा पर अधिक बल दिया जा रहा है और आध्यात्मिक शिक्षा की अवहेलना हो रही है, परिणाम स्वरूप विज्ञान के नित नये-नये आविष्कार हो रहे हैं. यह ज्ञान-विज्ञान हम अन्यों से सीख रहे हैं. अपना स्वयं का सर्वदा नहीं है. दिन प्रतिदिन सुख सुविधा के साधनों का आविष्कार हो रहा है और ये साधन मानव जीवन के अभिन्न अंग बनते जा रहे हैं. विज्ञान के विकास भौतिक सुख प्रदाता हैं और शारीरिक सुख का अनुभव है, पर आत्मा की भूख क्या है और आत्मा का सुख कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इस का उत्तर विज्ञान के पास नहीं है. इस का उत्तर तो केवल आध्यात्मिक शिक्षा है जिसे आध्य्यात्मिक गुरु ही दे सकता है. आध्यात्मिक गुरु जो आप्त अर्थात पूर्ण विद्वान्, धर्मात्मा, परोपकार प्रिय, सत्यवादी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय हो और जैसा अपने आत्मा में जानता हो और जिस से सुख पाया हो, सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेश करे. इस लिए कहा जाता है कि विद्वान् गुरु को यथा योग्य व्यवहार करके अज्ञानियों को दुःख सागर से तारने के लिए नौका रूप होना चाहिए. आध्यात्मिक ज्ञान आत्मा और परमात्मा सम्बन्धी होता है. यह अति सूक्ष्म विषय हैं. आत्मा और परमात्मा को किसी ने नहीं देखा. अपने-अपने मतों के आधार पर लोगों ने भिन्न-भिन्न मान्यताएँ बना रखी हैं. जिस कारण अनेक भ्रांतियां बनी हुई हैं. इन भ्रांतियों का निवारण केवल वे आत्म ज्ञानी धर्म गुरु कर सकते हैं जिन्होंने समाधि अवस्था में इन का साक्षात्कार किया है. ऐसे धर्म गुरु प्रकाश स्तम्भ होते हैं क्योंकि वे मार्ग दर्शक होते हैं. सदमार्ग जानते हैं, उस पर चलते हैं और अन्यों को चलने की प्रेरणा देते हैं.
गुरू के विषय में कहा जाता है कि जैसे सूर्य संपूर्ण लोकों को प्रकाशित करता है, वैसे ही गुरू सबके आत्माओं को प्रकाशित करते हैं।इसका भी तात्पर्य यही है कि सबकी आत्माओं को वही प्रकाशित कर सकता है,जिसका स्वयं का आत्मा विद्या- विवेक से प्रकाशित हो।
गुरु महोत्सव केवल एक दिन उत्सव मना कर खाना पूर्ति करने वाला महोत्सव नहीं होता है. अपने सभी गुरुओं के प्रति सदा मन में आदर भाव बनाये रखना एवं उन के सम्पर्क में रहना हम सब का मुख्य कर्तव्य भी है. बड़ा ही सुंदर कहा गया है कि जो व्यक्ति सदा गुरुओं का सम्मान करता है उस की आयु, विद्या, यश और बल ये चारों चीज़े स्वतः ही बढ़ती हैं. सच्चे गुरु की प्राप्ति बहुत बड़ा सौभाग्य है. परन्तु जीवन सफल तो तभी होता है, जब उन के निर्देशों का पालन करते हैं. इस लिए आज अति आवश्यक है कि जन साधारण में शरीर धारी गुरुओं के प्रति जो मिथ्या धारणाएं बनी हुई हैं, उन का निवारण करें. इस का उत्तरदायित्व केवल आर्य समाज को ही लेना पड़ेगा. प्रचार कार्यक्रम में अब इस विषय पर चर्चा करना, गुरु पूर्णिमा को सभी आर्य समाजों में हर्ष-उत्साह से महोत्सव के रूप में मनाना और यथा सम्भव गुरु जनों को मंच पर सम्मानित करना, गुरु के प्रति लोगों की शंकाओं और जिज्ञासा का समाधान करना और लेखों द्वारा गुरु के सच्चे स्वरूप के बारे में प्रकाश डालकर जन सामान्य में जागृति ला सकते हैं. परम पिता परमात्मा से प्रार्थना करती हूँ कि वे हमें विवेक दे जिस से हम सच्चे गुरु की पहचान कर सकें.
समस्त गुरु जनों को शत-शत नमन करते हैं एवं अभिनन्दन करते है.
राज कुकरेजा \करनाल
Twitter @ Rajkukreja 16

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