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सच्चे गुरू के लक्षण (गुरू पूर्णिमा भाग २)

चिंतन के क्षण
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सच्चे गुरु के लक्षण
गुरु पूर्णिमा ( भाग 2)
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को वैज्ञानिक सोच, तर्क शक्ति और विकसित बुद्धि प्रदान करना है, जिससे वह अंधविश्वास और अंधश्रद्धा से बच सके। अंधविश्वास, अंधश्रद्धा आत्मिक, मानसिक और शारीरिक दुर्बलता का कारण है। इसी दुर्बलता के कारण व्यक्ति धूर्त और पाखंडी गुरुओं का शिकार बन जाता है। स्वार्थ की पराकाष्ठा के कारण व्यक्ति कम परिश्रम, कम समय में मालामाल होना चाहता है। मत- पंथों का धंधा इस हेतु इन गुरूओं के लिए सर्वाधिक अनुकूल सिद्ध होता है। देशकाल के अनुकूल अपने पक्ष की सिद्धि करने के लिए बहुत से स्वार्थी विद्वान अपने आत्मा के ज्ञान के विरुद्ध भी कर लेते हैं।किसी कवि ने कहा है कि स्वार्थी दोषं न पश्यति अर्थात स्वार्थी लोग अपने काम की सिद्धि करने में दुष्ट कर्मों को श्रेष्ठ मान,दोष को नहीं देखते। इसलिए सच्चे गुरु के लक्षण प्रकाश में ला कर जन सामान्य में जागृति ला सकें थोड़े से विचार आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रही हूँ। आप सब भी इन विचारों को अपने सगे संबंधी व परिचित मित्रों, परिजनों तक पहुंचा कर इस शुभ काम में अपना सहयोग दे कर पुण्य के भागी बन सकते हैं।
किसी ने सच ही कहा है कि आज सच्चे गुरुओं का अभाव हो गया है।आज हमारे गुरुओं के दोहरे चरित्र अनुभव में आते हैं। उनके मन में कुछ होता है और वाणी में कुछ और। भक्तों को भी यही कृत्रिम गुरू पसन्द आ रहे हैं इस लिए तभी तो धार्मिक सत्संगों में हज़ारों की भीड़ दिखाई देती है, जहाँ गुरू जी अपने सेवक- सेविकाओं के साथ आते हैं और दो- तीन दिनों के सत्संगों के ही लाखों रूपए बटोरते हैं।कुछ टी वी चैनल भी ऐसे ही महात्माओं के प्रवचनों से भरे होते हैं। ये महात्मा लोग लाखों रूपए व्यय करके अपना प्रचार इन टीवी चैनल पर करते हैं।धूर्त और पाखंडी गुरुओं का जाल बिछा हुआ है। हजारों ही नहीं लाखों की संख्या में लोग इन के चंगुल में फंसते जा रहे हैं। भेड़चाल चल पड़ी है। अंधे के पीछे अंधे चलेंगे तो भटकेंगे ही, भटक भी रहे हैं परन्तु पाखंडी गुरुओं के प्रति अंधविश्वास,अंधश्रद्धा और मोह नहीं छोड़ रहे हैं।टी वी के भगवानों की आरतियाँ व महिमा सुन-सुन कर हृदय में एक वेदना तो होती ही है,और अधिक दु:ख तब होता है जब ये गुरू लोग अपनी भी आरती करवा रहे होते हैं। देश में बेकारी फैली है। भगवानों के हीरे- जवाहरतों से मण्डित सोने के मुकुट व सिंहासनों के समाचार पढ़ने को मिल रहे हैं। भगवान और पाखण्डी गुरू बढ़ रहे हैं और इन भगवानों व कपटी गुरुओं की सम्पदा बढ़ रही है और बढ़ रहे हैं जातीय रोग, जो साधारण रोग नहीं है।यह रोग देश के विकास में सबसे बडी बाधा है।
विचारणीय है कि गुरू किसे कहते हैं और क्या गुरू का होना अनिवार्य है? गुरू- उत्तम गुणों से गौरवान्वित किसी भी व्यक्ति को गुरू कहा जा सकता है।शिक्षा देने वाले शिक्षक आदरणीय होता है,उसको भी गुरू ही कहते हैं। भारतीय संस्कृति में माता-पिता आचार्य, शिक्षक और धार्मिक क्रियाओं को सम्पादित करके आध्यात्मिक ज्ञान कराने वाले सब गुरू की कोटि में आते हैं।माता-पिता बालक के भौतिक शरीर को उत्पन्न करने वाले व बालक को प्रारम्भिक शिक्षा देने वाले होने के कारण वे प्रथम गुरू होते हैं।प्रथम बालक माता से पाँच वर्ष, पिता से तीन वर्ष और फिर आचार्य व शिक्षक से विद्या प्राप्त करता है।गुरू के बिना भी ज्ञान प्राप्त नहीं होता।बालक का स्वाभाविक ज्ञान बहुत ही अल्प होता है, उसे नैमित्तिक ज्ञान ही चाहिए।इस लिए कहा जाता है कि गुरु बिन गत नहीं। कोई कितना भी पुस्तकों का स्वाध्याय कर ले परन्तु गुरु के बिना ज्ञान विकसित नहीं होता है। गुरू के पास बैठ कर स्वाध्याय करने से विशेष लाभ होता है। गुरू उसे पढ़ाता है, उसे योग्य बनाता है। गुरु अपने शिष्यों का बौद्धिक और आध्यात्मिक ज्ञान को विकसित करता है, अपने शिष्यों की भलाई चाहता है, उन्नति चाहता है, उन्हें सच्ची विद्या देता है।गुरू मार्ग दर्शक होता है वह असत्य से छुड़ा कर सत्य के दर्शन कराता है, अंधकार से हटा कर प्रकाश की ओर ले जाता है। विद्या वही है जिससे आत्मािक -परमात्मा का दर्शन हो।
आज बच्चों को माता-पिता से भौतिक शिक्षा मिल रही है। विद्यालयों में भी भौतिक विज्ञान की शिक्षा पर अधिक बल दिया जा रहा है। परिणाम स्वरूप विज्ञान के नित नए आविष्कार हो रहे हैं। यह ज्ञान – विज्ञान भौतिक सुख प्रदाता है और शारीरिक सुख का अनुभव कराता है पर, आत्मा की भूख क्या है और आत्मा का सुख कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। इस का उत्तर तो केवल आध्यात्मिक शिक्षा है जिसे आध्यात्मिक गुरु ही दे सकता है। आध्यात्मिक गुरु जो आप्त अर्थात पूर्ण विद्वान, धर्मात्मा, परोपकारी ,सत्यवादी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय हो और जैसा अपने आत्मा में जानता हो और जिससे सुख पाया हो वैसा सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेश करे। विद्वान गुरु को यथायोग्य व्यवहार करके अज्ञानियों को दुःख सागर से तारने के लिए नौका रूप होना चाहिए। आध्यात्मिक ज्ञान आत्मा और परमात्मा सम्बन्धी होता है। यह अति सूक्ष्म विषय है। आत्मा और परमात्मा को किसी ने नहीं देखा, अपने -अपने मतों के आधार पर लोगों ने भिन्न -भिन्न धारणाएं व मान्यताएं बना रखी हैं जिस कारण अनेक भ्रांतियां बनी हुई हैं। इन भ्रांतियों का निवारण केवल वे आत्मज्ञानी धर्म गुरु कर सकते हैं जिन्होंने समाधि अवस्था में इनका साक्षातकार किया हो। ऐसे धर्म गुरु प्रकाश स्तम्भ होते हैं क्योंकि वे मार्ग दर्शक होते हैं, सदमार्ग जानते हैं, उस पर चलते हैं और अन्यों को चलने की प्रेरणा देते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में धर्म गुरु मुख्य भूमिका निभाते हैं। जब धर्म गुरु स्वयं ही गलत रास्ते पर चलते हैं, दूसरे तो चलेंगे ही। ऐसे धर्म गुरुओं से दूर रहें जो अपने आप को भगवान बताते हैं और ऐसे अज्ञानियों की बातों में न आ जाएं जो जन्म लेने वाले शरीरधारी लोगों को भगवान बना कर अपने स्वार्थ और धन्धों के लिए उसे आगे लाते हैं। ये सब जितने भी शरीरधारी गुरू, स्वयं को ईश्वर से ऊँचा बताते हैं, वे विद्या हीन होने से ऊटपटाँग शास्त्र विरूद्ध वाक्य रचना भी कर लेते हैं। ये सब वेद विरूद्ध कार्य हैं और जो वेद विरूद्ध मंत्रोपदेश करने वाले हैं, वे गुरु ही नहीं अपितु कपटमुनि है। ऐसे गुरु और शिष्य दोनों भवसागर के दु:ख में डूबते है, जैसे पत्थर की नौका में बैठने वाले समुद्र में डूब मरते हैं। स्वार्थी, लोभी और कुकर्मी गुरूओं ने ही गुरूमाहात्म्य तथा गुरूगीता आदि बनाई है। इनमें शरीरधारी गुरूओं का माहात्म्य तो ईश्वर से भी ऊपर होता है,इसे दर्शाने का मूर्खतापूर्ण प्रयास है। यह गुरूमाहात्म्य और गुरूगीता भी एक बड़ी गुरूलीला है और इसके इस श्लोक का अर्थ जो ईश्वर परक है उस
गुरुर्ब्रह्मा गुरुविर्ष्णुर्गुरूदेर्वो महेश्वर:।
गुरूरेव परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नम :।।
की पुष्टि करते हुए शरीरधारी गुरु स्वयं को अपने अनुयायियों से ब्रह्मा, विष्णु और महेश से भी ऊंचा मानना चाहिए, ऐसी भावना भरता है। यह ठीक नहीं है क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और परब्रह्म परमेश्वर के नाम हैं। परमेश्वर सृष्टि की रचना, पालना व संहार करता है, इसलिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश परमेश्वर के ही नाम हैं। क्या कोई शरीरधारी सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार कर सकता है? परमेश्वर के तुल्य शरीरधारी गुरु कभी भी नहीं हो सकता।
समाज को ढोंग, आडम्बर, पाखंड और अंधविश्वास में ढकेलने वाले गुरुओं से सावधान रहना चाहिए।
गुरु बनाते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। इस का संक्षेप मे स्वामी सत्यपति जी उतर देते हैं कि वैदिक धर्म में गुरु बनाने की परम्परा है और सच्चे गुरु में निम्न लक्षण अर्थात विशेषताएँ होनी ही चाहिए।
1 वेद और वेदानुकूल ॠषिकृत ग्रंथों के पठन पाठन को मुक्ति का साधन मानने वाला हो।
2 सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी हो।
3 वितैषणा, पुत्रैषणा और लोकैषणा का त्यागी हो।
4 ईश्वर, जीव और प्रकृति को पृथक -पृथक मानने वाला हो।
5 स्वयं अष्टांग योग का अनुष्ठान करने वाला हो।
6 सकाम कर्मों को छोड़ कर निष्काम कर्म करने वाला हो।
7 अपनी उन्नति के तुल्य प्राणी मात्र की उन्नति चाहने वाला हो।
8 मद्य मांसादि अभक्ष्य खान पान करने वाला न हो।प
9 पक्षपात रहित न्यायकारी हो।
10 मोक्ष की प्राप्ति करने करवाने का मानव जीवन का मुख्य लक्ष्य मानने वाला हो।
11 वेद, दर्शन, उपनिषद आदि ग्रंथों में वर्णित योग विद्या का प्रचार प्रसार करने वाला हो। इत्यादि।
किसी व्यक्ति में लम्बे काल तक इन गुणों का परीक्षण करना चाहिए। लम्बे परीक्षण के पश्चात यदि उस व्यक्ति में उपर्युक्त गुण उपलब्ध हों, तभी उसे गुरु बनाना चाहिए। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसे गुरु को कहाँ ढूंढें। ऐसे गुरु को ढूंढना आज कठिन लगता है पर असम्भव नहीं है। सच्चे गुरु की पहचान के लिए आज भी हमारे पास अपने ॠषिओं के आर्ष ग्रंथ उपलब्ध हैं। इन ग्रंथों का स्वाध्याय प्रति दिन नियमित रूप से करना चाहिए। प्रारम्भ में इन ग्रंथों का स्वाध्याय कठिन लग सकता है लेकिन जिस काम में रूचि होगी तो वह काम सरल हो जाता है।आर्ष ग्रंथों के स्वाध्याय करने से व्यक्ति की बुद्धि इतनी विकसित और तार्किक हो जाती है कि वह इन कपटमुनि गुरुओं के चंगुल में नहीं फँसता है।
मनुष्य को ज्ञान देने वाले बहुत होते हैं, जो जितना ज्ञान देता है वह उतने अंश में उस का गुरु होता है। इस लिए हमारे जीवन में गुरु एक नहीं अनेक होते हैं।
ईश्वर से प्रार्थना है कि हम सब को श्रेष्ठ बुद्धि दे जिससे हम सत्य और असत्य का निर्णय कर सकें। अपने सभी गुरुओं को शत-शत नमन। ईश्वर करे कि हम सब सदा सुपथ के गामी बनें।
ओ३म् शांतिः शान्तिः शान्तिः
राज कुकरेजा / करनाल
Twitter @Rajkukreja16

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