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रक्षा बंधन। – हमारा रक्षक कौन?

चिंतन के क्षण
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रक्षाबन्धन ——–हमारा रक्षक कौन?
श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षाबन्धन का त्यौहार मनाया जाता है. त्यौहार से कुछ दिन पूर्व बाजारों में खूब चहल-पहल होती है, रंग-बिरंगी राखियों से दुकानें सजने लगती हैं और मिठाइयों की भीनी-भीनी सुगंध भी वातावरण को सुवासित करने लगती हैं. बहनें भाई की कलाई पर राखी बाँधने के लिए राखियाँ खरीदती हैं. जिन के भाई दूर परदेश में रहते हैं, उन्हें डाक द्वारा राखी भेजी जाती है और आज तो नेट का जमाना है, नेट द्वारा भी राखियाँ भेजी जाती हैं. बहन भाई को राखी बांधती है और मन ही मन प्रार्थना करती है कि यह राखी उस के भाई के जीवन में आने वाली विघ्न, बाधा वा आपदाओं से उस की रक्षा करे और भाई भी प्रतिज्ञा करता है कि वह अपनी बहन की रक्षा करेगा. इस प्रकार रक्षा बंधन बहन-भाई के मधुर मिलन वा भाई चारे के स्नेह का यह त्यौहार है. बहन-भाई में परस्पर उपहारों का आदान-प्रदान भी होता है. इस कारण काफी भौतिक व्यवसाय भी इस त्यौहार के आधार पर पनपते हैं जो त्यौहार की मूल भावना को दूषित कर रहे हैं.
आध्य्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करें कि रक्षा-बंधन का अर्थ क्या है? रक्षा-बंधन का अर्थ है अपनी रक्षा के लिए बाँध लेना अथवा बंध जाना. भाई को रक्षा के लिए कैसे बाँधा जा सकता है? भाई रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकते. कई भाई तो अपनी बहनों से छोटे होते हैं. वे अपनी रक्षा भी नहीं कर पाते तो बहनों की क्या रक्षा करेगें? रक्षा वे कर सकते हैं जो अधिक बल, बुद्धि व सामर्थ्य रखते हैं. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने लिखा है कि उत्तम कार्यो की सिद्धियों के लिए परमेश्वर व किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य से ही सहायता मिल सकती है. रक्षा-बंधन अर्थात रक्षा हेतु स्वयं को बांधना, वे केवल परम पिता परमात्मा से ही हो सकता है. परमात्मा ही सर्वाधार वा सर्वरक्षक हैं. वे ही अपने अनंत गुण-कर्म-स्वाभावो से तथा अपने बनाए दिव्य गुण युक्त जड़ व चेतन पदार्थो से हम सब मनुष्यों की निरंतर सब प्रकार से रक्षा कर रहे हैं.
रक्षा बंधन का प्रचलन प्राचीन काल से चला आ रहा है.यह त्यौहार तो समाज का प्राण है, परन्तु भौतिक वाद ने इसके स्वरूप को विकृत कर दिया है. यह त्यौहार श्रावणी पर्व के रूप में मनाया जाता था .श्रावणी पर्व अर्थात वेदों का पढ़ना-पढ़ाना ,सुनना-सुनाना इन्हीं दिनों अधिक होता था. वर्षाकाल होने के कारण सभी व्यवसाय मंद पड़ जाते थे तो ईश्वरीय ज्ञान अर्थात वेदों के प्रचार-प्रसार में अधिक समय मिलता था. ब्राह्मण और सन्यासी वर्ग गृहस्थी लोगों के घरों में आ कर अपने-अपने यजमानों को संकल्प सूत्र बाँध कर संकल्प करवाते थे कि वेदों का स्वाध्याय करते रहेंगे ,जिस से वेद विद्या घर-घर पहुँच सके. यही संकल्प-सूत्र बाद में रंग-बिरंगी राखी बन गया और भाई की कलाई पर सजने लगा. सर्वरक्षक ईश्वर के स्थान पर भाई, जो रक्षा करने में असमर्थ होता है, उसे रक्षक मान लिया. बहन-भाई का बड़ा ही मधुर,पवित्र रिश्ता है,परन्तु हम त्यौहार को विकृत रूप दे कर त्यौहार के मूलभूत उद्देश्य से भटक न जाएँ. वैदिक रीति से समझें और अपने-अपने कार्य क्षेत्र में क्रियान्वित करें, तभी त्यौहारों की गरिमा बनी रहती है.
आजकल श्रावणी पर्व का आयोजन कई आर्य समाजों में होता है. कई आर्य समाज वार्षिक उत्सव का आयोजन श्रावणी पर्व पर करके खानापूर्ति कर लेती हैं. वेदों का प्रचार-प्रसार शिथिल पड़ चुका है. जब तक हम अपने मूल अध्यात्म और वेद से जुड़े रहेंगे, हमें कभी भी बदहाली, असुरक्षा, और अशांति के लिए चिंतित नहीं होना पड़ेगा. ऋषि दयानन्द जी सरस्वती न उदघोष दिया-“वेदों की ओर लौटो”ताकि भारत की खुशहाली, सुरक्षा, स्वाभिमान व विश्व-शांति बनी रहे. हमारा परम पिता ओ३म् ही सर्व रक्षक है, इस पिता की छाया में हम सब सुरक्षित हैं. ऋषि पतंजलि के बताये अष्टांग-योग के सूत्रों द्वारा हम ईश्वर से बंध जाएँ. ईश्वर की सुरक्षा में ही असुरक्षा का भय नहीं रहता है. अतः ईश्वर ही हमारा रक्षक है।
राज कुकरेजा / करनाल
Twitter @Rajkukreja16

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