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शिक्षक दिवस
एक बार एक राजा ने अपने मंत्रियों से अपनी पढ़ने की इच्छा व्यक्त की और मंत्रियों से एक योग्य शिक्षक की व्यवस्था करने को कहा। मंत्रियों ने राजा के आदेशानुसार एक प्रतिष्ठित गुरूकुल के आचार्य को राजा को पढ़ाने के लिए नियुक्त कर दिया। गुरू जी नियम पूर्वक आते और राजा को पढ़ा जाते। राजा भी नियम पूर्वक पढ़ने लगे परन्तु कुछ ही दिनों में उन्होंने अनुभव किया कि गुरु जी के पढ़ाए पाठ उनके पल्ले नहीं पड़ रहे हैं और संकोच वंश पूछ भी नहीं सकत थे। विचार किया कि रानी से ही चर्चा कर लेते हैं। रानी ने ध्यान पूर्वक राजा की समस्या को सुना परन्तु समाधान न कर सकी और राजा को परामर्श दिया कि गुरु जी से ही पूछ लिया जाए। साहस जुटा कर अगले दिन राजा ने गुरु जी से पूछा कि आप का पढ़ाया हुआ मेरी समझ में नहीं आता, क्या कारण है? गुरु जी ने उत्तर दिया कि राजन् आप को समझ नहीं आता क्योंकि आप ने लक्ष्मी का आसन विद्या के आसन से ऊँचा रखा है अर्थात आप स्वयं को शिष्य न मान कर राजा मानते हुए अपना आसन ऊँचा रखा हुआ है और विद्या देने वाले का आसन नीचे है।नियम के अनुसार देने वाला ,लेने वाले से अधिक सम्मान का पात्र होता है।आपने नियम का उल्लंघन किया हुआ है। इस से आप की विद्या के प्रति श्रद्धा नहीं है और अश्रद्धा विद्या प्राप्ति में सब से बड़ी बाधा है। दूसरे दिन राजा ने अपना आसन नीचे लगवाया और गुरु जी का ऊँचा। बड़ी ही श्रद्धा से गुरु चरणों में समर्पित भाव से विद्या प्राप्त करने लगा। इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया है कि आचार्य, शिक्षक और अध्यापक का स्थान समाज के सभी वर्गों में से विशेष स्थान रखता है। नीति शास्त्र के विशेषज्ञ चाणक्य के अनुसार शिक्षक समाज की रीढ़ की हड्डी के समान है। समाज व राष्ट्र के कर्णधार शिक्षक ही हैं। किसी बुद्धिजीवी ने कहा है कि –
Teaching is the one profession, that creates all other professions. Appreciate a teacher.
भारत के दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली डा0 राधा कृष्णन् महान दार्शनिक एवं शिक्षाविद और ऊंच कोटि के विद्वान हुए हैं जो एक शिक्षक थे। मनुष्य को सही अर्थों में मनुष्य बनाने के लिए वे शिक्षा को सर्वाधिक आवश्यक मानते थे । उनके अनुसार शिक्षा वह है जो मनुष्य को ज्ञान प्रदान करने के साथ साथ उसके हृदय एवं आत्मा का विकास करती है। सच ही तो कहा गया है कि साक्षरता तथा संस्कारों का आपस में अभिन्न संबंध है। सामाजिक विकास एवं आधुनिकीकरण में शिक्षा की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।
डा०राधा कृष्णन् जी की इच्छा थी कि उन का जन्म दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए। उनकी इच्छा को शिरोधार्य कर विद्यालयों में पांच सितम्बर शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की परम्परा शुरू हो गई है।
शिक्षा का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा हमारी समृद्धि में आभूषण है तो विपत्ति में शरण स्थान और समस्त कालों में आनन्द स्थान होती है। जीवन लक्ष्य पूर्ति के लिए शिक्षा आवश्यक है।
शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी भी राष्ट्र को उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर मात्र शिक्षा के द्वारा ही पहुँचाया जा सकता है और इसे केवल शिक्षक ही पहुँचा सकता है। शिक्षक ही राष्ट्र के कर्णधार माने जाते हैं। लेकिन देश की शिक्षा के वर्तमान परिदृश्य के बारे में सब कुछ ठीक हो रहा है, ऐसा कहना व मानना असंगत है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि आज जिस तरह का वातावरण चारों ओर फैलता जा रहा है, जो बच्चों की शिक्षा के साथ साथ समाज व राष्ट्र के लिए भी घातक है। अन्य व्यवसायिओं के समान शिक्षक भी व्यवसायी बन गए हैं। सब की मानसिकता बन रही है कि काम कम और वेतन अधिक। शिक्षा का क्षेत्र भी भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रहा। यह भी अकंठ भ्रष्टाचार की चपेट में आ चुका है। आज अध्यापक व शिक्षक की परिभाषा यदि किसी से पूछी जाए तो उत्तर यही मिलेगा कि केवल पुस्तकस्थ विद्या पढ़ाने और परीक्षा पास कराने वाले को ही शिक्षक या अध्यापक कहा जाता है। भौतिकवाद और स्वार्थ परक सोच के कारण शिक्षक जिनका पहला कर्तव्य अक्षर ज्ञान के साथ नैतिक तथा बौद्धिक दोनों ही प्रकार की शिक्षा प्रदान करना है, नहीं कर पा रहे हैं। विद्यालयों में शिक्षक को बच्चों के प्रारम्भिक काल में ही ऐसी शिक्षा प्रदान करनी चाहिए कि बच्चों के चरित्र निर्माण हो सकें, उनकी मानसिक शक्ति बढ़े,बुद्धि विकसित हो और देश के युवा अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे।स्कूली शिक्षा के साथ साथ नैतिक मूल्यों की नींव शिक्षक ही दृढ़ करवा सकते हैं परंतु यदि शिक्षक ही पथ भटक गए तो बच्चे भटकेंगे ही।आज के परिदृश्य में अर्थ प्रधान हो गया है और विद्या गौण हो गई है। पूर्व काल में विद्वान पूजा जाता था और आज धनवान पूजा जाता है जिसके कारण माता-पिता अपने बच्चों को केवल इन्जीनियर व डाक्टर और ऐसे व्यवसाय जिससे आर्थिक वृद्धि अधिक हो सके, उन्हीं व्यवसायों पर प्रोत्साहित कर रहे हैं, जिस कारण शिक्षक के प्रति श्रद्धा भाव भी कम होता जा रहा है, यही सोच सबसे बड़ी भूल है और जब तक शिक्षक के पद को गरिमा नहीं मिलती, प्राप्त शिक्षा बच्चों को जीविका तो प्रदान करवा सकती है परन्तु बच्चों को जिम्मेदार नागरिक नहीं बना सकती,न ही बच्चे शिक्षा के मूल्यों, आदर्शो को स्वयं में समाहित कर सकते हैं और न ही बच्चे सुसंस्कारी बन सकते हैं। डॉ राधाकृष्णन् शिक्षा के क्षेत्र में उदारवादी थे और मानते थे कि शिक्षा देने वाले शिक्षक आदरणीय हैं और इन्हें किन किन समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है, समस्याओं के समाधान हेतु सभी शिक्षक एक मंच पर बैठें औऱ परस्पर समाधान का प्रयास करें, अलग अलग स्तरों पर गोष्ठियों का आयोजन किया जाए और समस्याओं का विशलेषण करें, भविष्य में शिक्षा संबंधी योजनाओं पर विचार विमर्श किया जाए। शिक्षा के प्रति जन सामान्य में जागृति लाने का भरसक प्रयास किया जाए। इस प्रकार एक उच्च उद्देश्य को लेकर पांच सितम्बर का दिन शिक्षक दिवस के रूप में आयोजित करने की परम्परा बनी हुई है परन्तु जो उच्च उद्देश्य था, उसकी तो अवहेलना कर दी गई है और आज कल शिक्षक दिवस अधिकांश विद्यालयों में एक भौतिक पर्व के रूप में मनाने की परम्परा चल पड़ी है।इस दिन बच्चे शिक्षक बनते हैं और अपने अपने शिक्षकों की कक्षाओं को लेने का अभिनय करते हैं। शिक्षक वर्ग के लिए यह दिन, समझ लें कि मौज मस्ती का दिन हो गया है, इस प्रकार शिक्षक दिवस को मना कर खानापूर्ति कर दी जाती है।
राष्ट्र के विकास, समाज के सुधार, परिवार के निखार के लिए शिक्षा की गुणवत्ता और नैतिक मूल्यों की नितांत अपेक्षा है। आज समाज में लड़ाई केवल अधिकार की है। शिक्षक वर्ग भी अधिकार को लेकर तो सुचेत है परन्तु कर्तव्य को गौण मान रहा है, यह बहुत बड़ी भूल है। केवल अधिकार नहीं अपने कर्तव्यों का भी ध्यान रखना अधिक अनिवार्य है। महत्वपूर्ण यह है कि अधिकार के साथ कर्तव्य का इमानदारी से पालन हुआ या नहीं, यह चिन्तन का मुख्य बिंदु होना चाहिए और शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार का जड़ से उन्मूलन कैसे हो इस पर शिक्षा विभाग को सतर्क रहना होगा। केवल एक ही दिन शिक्षक दिवस का आयोजन करने से समाज का, राष्ट्र का कुछ भी भला होने वाला नहीं है और न ही शिक्षक का।
शिक्षा के क्षेत्र में अपनी निस्वार्थ और समर्पित भाव से जो शिक्षक अपनी सेवा दे रहे हैं,उन्हें शत्-शत् नमन।
राज कुकरेजा/ करनाल
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