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अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस भारत की नारी शक्ति

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस
भारत की नारी शक्ति
पिछले कुछ वर्षों से महिला दिवस मनाने की परम्परा शुरू हो चुकी है और मार्च मास की आठ तिथि महिला दिवस के लिए निर्धारित की गई है। इस दिन महिलाओं से संबंधित विषयों पर गोष्ठियों व सभाओं का आयोजन किया जाता है।इन गोष्ठियों और सभाओं का उद्देश्य नारी के अधिकारों पर चर्चा करना व उसकी समस्याओं का उचित समाधान करना होता है। परंतु यदि ध्यान से देखा जाए तो सारा कार्य अधूरा सा लगता है। नारी जाति आज भी पददलित है। दहेज का दानव उसे निगल रहा है। आज भी दहेज के लोभी बहुओं को जलाने जैसे कुकृत्य कर रहे हैं। बलात्कार की घटनाएं भी रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। भ्रूण हत्या जैसे कुकर्म ज़ोरों से हो रहे हैं, जिस कारण लिंग अनुपात में तीव्रता से परिवर्तन हो रहा है। चारों ओर नारी की सुरक्षा को लेकर चिन्ताएं प्रगट की जा रही हैं। पुरुष प्रधान समाज में नारी को समानाधिकार मिलने चाहिए, इस पर चर्चा होती है और कहने को तो कह सकते हैं कि चुनाव में महिलाओं के लिए आरक्षित क्षेत्र बन गए हैं। परन्तु सत्ता क्या सचमुच महिलाओं के हाथ में है। हमारे क्षेत्र की पार्षद महिला हैं। एक दिन क्षेत्र की स्वच्छता को लेकर पार्षद के आवास पर पहुँची तो उनके पति से मिलना हुआ। जब मैंने इच्छा व्यक्त की मैं पार्षद महोदया से मिलने आई हूँ तो उन्होंने कहा कि पार्षद महोदया तो रसोई में व्यस्त हैं और उनका सारा काम मैं ही करता हूँ।चुनाव तो महिलाओं के नाम करवाए जाते हैं परन्तु सत्ता पुरुष वर्ग के हाथों में होती है। अपवाद रुप में कुछ को छोड़ कर सभी महिलाओं की एक ही कहानी है।
देश में नारी की वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुए नारी वर्ग को मुख्य तीन वर्गों मे विभक्त कर सकते हैं। एक वर्ग अपने अधिकारों व दायित्वों के प्रति पूर्ण रूप से सजग हैं। यह वर्ग पुरूष के साथ स्पर्धा करने में पूरी तरह से सक्षम है। एक दूसरा वर्ग अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने के लिए प्रयासरत है। तीसरा वर्ग अशिक्षित और पुरूष समाज द्वारा शोषित है। एक वर्ग इन तीनों से अलग सोच का है, स्वच्छंदता, स्वेच्छाचार और उच्छृखलता इनको अति प्रिय है। यह वर्ग विवाह जैसे पवित्र बंधन को स्वीकार नहीं करता।
नारी की सुरक्षा को लेकर भी चर्चा की जाती है। दुखद विषय तो यह है कि नारी की सुरक्षा नारी ही नहीं कर पा रही है। नारी का एक रूप नारी बनने से पूर्व कन्या का है। कन्या माँ की कोख में भी सुरक्षित नहीं है. बेटी न बाहर सुरक्षित है न ही माँ के गर्भ में। बाहर तो बलात्कार पर-पुरूष करता है परन्तु यहाँ तो उस की हत्या उस की ममता की मूर्ति माँ ही करती है। कारण कई हो सकते हैं। घर के सदस्यों के दबाव का भी एक कारण माना जाता है, जो उसे इस निर्मम कर्म करने को विवश करता है. परन्तु इस से माँ अपने को निर्दोष सिद्ध नहीं कर सकती।। यदि दबाव को कारण मान भी लिया जाए तो भी प्रश्न उठता है कि क्या वह विरोध और विद्रोह नही कर सकती? मुख्य अपराध तो माँ ही करती है। यह सब डाक्टरों की मिली भगत से योजना बद्ध होता है कि किसी को कानों कान तक खबर नहीं पड़ती। कन्या आखिर क्यों नहीं चाहिए? इस के भी अनेक कारण हो सकते हैं। लेकिन मुख्य रूप से तीन ही समझ आ रहे हैं। प्रथम तो लोग इस मिथ्या धारणा के शिकार हैं कि वंश बेटे से चलता है। इस पर जरा विचार करें कि क्या सचमुच वंश बेटे से चलता है? आज हमारे कितने बच्चे अपने दादा के पिता के नाम को जानते हैं? अपने पिता के नाम को भी इस लिए जानते हैं क्योकि पाठशाला में प्रवेश करते समय बच्चे के पिता का नाम लिखना अनिवार्य होता है। वंश नाम से नहीं काम से चलता है। आज हम जिन को भी याद करते हैं, उन के काम के ही कारण याद करते है। कन्या भ्रूण हत्या का दूसरा कारण कन्या को आर्थिक बोझ समझ कर भी होती है। जैसे-जैसे मंहगाई बढ़ रही है लेनदेन, दहेज़ और प्रतिष्ठा प्रदर्शन ज़ोरों से बढ़ रहा है. समाज का एक वर्ग आसामाजिक ढंग से से कमा कर अपनी तिजोरियां भर रहा है. उस के लिए विवाह आदि ऐसे अवसर हैं जहाँ वे दिल खोल कर धन लुटा सकता है और लुटा भी रहा है. सीमित आय वाला स्वयं को असहाय पाता है. समाज में पुरुष मानसिकता के कारण बेटे वाले स्वयं को अधिक भाव देते हैं. बेटी पक्ष वालों से अपनी मनमानी मांगें व शर्तें मनवाने का अपना मौलिक अधिकार समझने लगे हैं. विवाह गुण-कर्म -स्वभाव के अनुरूप न होकर एक व्यवसाय के रूप में परिवर्तित होते जा रहे हैं. इन कुरीतिओं का सामना माता-पिता नहीं कर सकते. भीरु और डरपोक बन कर गर्भ में पल रही कन्या की भ्रूण हत्या में ही भलाई समझ कर एक बहुत बड़ा घृणित अपराध कर लेते हैं. कन्या भ्रूण हत्या एक बहुत बड़ा जघन्य अपराध है। यहाँ की अदालत में भले ही दंड से बच जाएँ परन्तु न्यायकारी ईश्वर की अदालत से नही बच सकते। समाज की यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि एक ओर कन्या को देवी मान कर नवरात्रों में श्रद्धा के साथ उस के पग धोता है. उस की पूजा करता है तो दूसरी ओर गर्भ में ही कन्या रूपी कली को बड़ी ही निष्ठुरता के साथ कुचल दिया जाता है. यह मानव की विकृत बुध्दि का परिणाम नही तो और क्या हो सकता है?बेटे की चाहत का तीसरा कारण है कि बेटा वृद्धावस्था में उन को आश्रय देगा. बेटी तो विवाह के बाद पराये घर चली जाती है। प्रत्यक्ष प्रमाण है कि उन का यह भ्रम भी टूट चुका है। आज कल बेटे भी बहू को ले कर नौकरी के लिए किसी दूसरे शहर या विदेश जा रहे हैं।कई बच्चे अपने माता-पिता को इसलिए भी पास नहीं रख रहे क्योंकि वे आज़ाद रहना चाहते हैं और माता-पिता उन की आज़ादी में बाधक बन सकते हैं। कई माता-पिता बेटे के पास इसलिए रह रहे हैं क्योकि बहू नौकरी करती है, माता-पिता उन के बच्चों की देखभाल करते हैं। यह सर्व विदित तथ्य है कि बेटी बेटे की अपेक्षा अधिक भावुक एवं सम्वेदनशील होती है। प्रायः देखा जा रहा है कि माँ-बाप बेटे-बहू से उपेक्षित हो रहे हैं। बेटी अपने घर उन का स्वागत कर रही है। यह उचित है या अनुचित, परन्तु यह तो सिद्ध हो ही रहा है कि जिस बेटी के जन्म को स्वागत के रूप में नहीं लिया गया था, बस स्वीकार कर ली गई थी, माता-पिता के लिए कितने उदार ह्रदय वाली होती है।
सुरक्षा की दृष्टि से समाज का एक वर्ग जो घरेलू हिंसा से पीड़ित है, उस की उपेक्षा नही की जा सकती। इस वर्ग में अधिकाँश महिलाएं श्रम जीवी हैं। दिनभर या तो मजदूरी करती हैं या दूसरों के घरों में काम करके जीवन निर्वाह करती हैं। पति जो कुछ थोड़ा यदि कमा भी लेता है तो उस से दारु पीता है, घर में मार पिटाई करता है और पत्नी की झोली में जिन बच्चों को डालता है, उन के पालन का दायित्व भी पत्नी के कन्धों पर होता है। इस वर्ग को सुरक्षा के साथ-साथ सहानुभूति की भी आवश्यकता है। इन्हें शिक्षा के साथ अपने अधिकारों के प्रति भी जागरूक करना अत्यंत ही आवश्यक है।
नारी को सुरक्षा इन पुरुष मानसिक वाले राज नेताओं, सर्वखाप के प्रधानों, मौलवियों और संत-बाबों के विवादस्पद वक्तव्यों तथा उनकी टीका-टिप्पणी से चाहिए। वे अपने वक्तव्यों द्वारा नारी को उस मध्य काल में ले जाना चाहते हैं, जब नारी उपेक्षित तथा अपमानित जीवन जीने को विवश थी। उसे शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया, वेदों के पढ़ने-सुनने का अधिकार नहीं दिया गया तथा उसे ताड़न का अधिकारी माना गया।तब परिस्थितियाँ अलग थीं। पर अब देश आज़ाद है। आज के युग में नारी को समानाधिकार मिल रहे हैं, उसे लिंग, जाति, व सम्प्रदाय विशेष के आधार पर अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता।इस सब में ऋषि दयानन्द जी का विशेष योगदान है। उन्होंने वेदों से सिद्ध कर दिया है कि वेद पढ़ने-सुनने का नारी को समानाधिकार है। जिस के लिए सारी नारी जाति ऋषि दयानन्द सरस्वती जी की ऋणी रहेगी।
आज परिस्थितियाँ बदल रही हैं नारी के लिए पुनार्जागरण व नव जागरण का काल प्रारंभ हो गया है।यदि हमारी बेटियों को भी समान अवसर मिले तो वे सिद्ध कर रही हैं कि किसी भी स्पर्धा में वे पुरुष वर्ग से पीछे नहीं हैं। सभी कार्य क्षेत्र में शिक्षा, चिकित्सा,न्याय, विज्ञान राजनीति, क्रीड़ा जगत,अन्तरिक्ष जगत,फ़िल्म उद्योग इत्यादि में अपनी पकड़ को मज़बूत कर रही है। कई संस्थानों में तो उच्च पदों को भी शोभायमान कर रही हैं।
इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि सरकार भी नारी के अधिकारों को ले कर चिन्तित है। खेद इस बात का है कि जिस युद्ध स्तर पर काम होना चाहिए, वैसा हो नहीं पा रहा है। नारी अभी भी कुरीतियों का शिकार बनी हुई है। नारी शोषण की, नारी बलात्कार की घटनाएँ थमने का नाम नहीं ले रही हैं। सरकार ऐसी समस्याओं के लिए क़ानून तो बना रही है परन्तु क़ानून का पालन अर्थात कठोर दण्ड व्यवस्था नहीं है। प्रश्न यही है कि सरकार के कड़े क़ानून क्या सुरक्षा दे पायेंगे? संदेहस्पद लगते हैं। पोलिस भी भ्रष्ट नेताओं के हाथों बिकी हुई है। कई बार तो ऐसा लगने लगता है कि नेता ही नहीं चाहते कि अपराध की सभी शिकायतें दर्ज़ की जाएँ जिससे अपराध की बढ़ती दर सब के सामने उजागर हो जायगी और इनकी छवि खराब होगी और इस खराब छवि को लेकर अगले चुनाव में जनता के सामने क्या मुहं लेकर जायेंगे। प्रश्न उठता है कि क्या नारी असुरक्षित भावना से ही जीती रहे!? नारी को स्वयं अपनी सुरक्षा के लिए कटिबद्ध होना पड़ेगा। नारी की शक्ति बेटी, बहू, सास के रूप में बिखरी पड़ी है। अपनी शक्ति को पूरी स्त्री जाति में समेट कर एक संगठन के रूप में आये। स्वजाति द्रोह छोड़ कर माँ के रूप में बेटी को जन्म दे. बहू बन कर सास को सम्मान दे, सास बन कर बहू का स्वागत करे। समाज में फैली कुरीतियोँ को उखाड़ कर फेंक दे। किसी ने बड़ा सुंदर कहा है “जिस प्रकार मणियों का मूल्य पृथक रहने पर कम होता है, माला के रूप में उन का मूल्य बढ़ जाता है, इसी प्रकार जाति जब एक होती है तो उस का विशेष आदर व महत्व होता है, परन्तु उसी जाति का पृथक-पृथक टुकड़ा वह सम्मान तथा मूल्य नहीं पा सकता। अब समय है कि नारी अपनी सुप्त शक्ति को जागृत करे। नारी जाति स्वयं निज का सशक्तीकरण कर सकती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। महिला दिवस का आयोजन तभी सार्थक होगा जब हमारी बेटियाँ बचेंगी। बेटियों को बचाने के लिए आईए बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ आन्दोलन के साथ जुड़ जाएँ। किसी ने सच ही कहा है कि देश की नारी जब जागृत हो जाएगी तो युग बदलते देर नहीं लगेगी।
ईश्वर से प्रार्थना है “आधार राष्ट्र की हो नारी सुभग सदा ही “
राज कुकरेजा /करनाल
Twitter @Rajkukreja 16

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