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जीवन का उद्देश्य

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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जीवन का उद्देश्य
जब मै पाठशाला में पढ़ती थी प्रायः अध्यापिका जी निबन्ध लिखवाया करती थी “मेरे जीवन का उद्देश्य “ अर्थात मैं क्या बनना चाहती हूँ –इंजीनियर,डाक्टर ,जज राजनेता इत्यादि –इत्यादि. ऐसे ही कितने व्यवसाय होते थे, जिन में से हम बच्चे चयन करके निबंध लिखते थे. कई बार तो अध्यापिका जी स्वयं ही लिखवा देती और हम बच्चे रटा लगा लेते थे या फिर किसी निबंध पुस्तिका से नकल मार कर लिख लेते थे.मुझे थोड़े समय के लिए पाठशाला में अध्यापन का अवसर मिला,अब मुझे भी बच्चों से निबंध लिखवाना था. विषय भी वही “मेरे जीवन का उद्देश्य”था.जैसा स्कूल में पढ़ा-लिखा था उसी ही परिपाटी का पालन कर दिया. कुछ बच्चे स्वयं लिख लेते और कइयों को लिखवा देती। वे भी रटा लगा लेते थे.
इस प्रकार मैंने मेरे जीवन के उद्देश्य को कई बार लिखा और कई बार लिखवाया परन्तु बार –बार मुझे यही एहसास होता कि यह जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता. इस कारण उद्देश्य को ले कर मेरे मन की अनेकों शंकाएं व अनसुलझे प्रश्न मुझे घेरे रहते. संकोची स्वभाव के कारण किसी भी विद्वान से समाधान करवाने का साहस भी नहीं जुटा पाती थी। दूसरी ओर वैदिक संध्या जिसमें ॠषि दयानंद सरस्वती जी ने उन्नीस मंत्रो का चयन करके सामान्य जन के लिए ध्यान करने की एक सरल विधि की पुस्तिका लिखी, जिसका उद्देश्य था कि कम से कम प्रत्येक व्यक्ति इन मंत्रों द्वारा प्रात: सायं ईश्वर की सतुति – प्रार्थना -उपासना कर सके।इन उन्नीस मंत्रों को ले कर भी मै स्वयं में उलझी रहती. संध्या का उद्देश्य मंत्रपाठ कर लेना ही नहीं हो सकता है. संध्या के मन्त्र कब कंठस्थ हुए, कुछ याद नही. मेरे जन्म से पूर्व हमारा परिवार महात्मा प्रभु आश्रित जी के सम्पर्क में आया तब से घर में दैनिक यज्ञ व संध्या का प्रचलन शुरू हो गया था. पिता जी का हम बच्चो के लिए विशेष आदेश था कि संध्या के बिना भोजन नही मिलेगा. भोजन से वंचित न रहना पड़े इस लिए मंत्रपाठ कर के खानापूर्ति कर लेती. मन्त्र भी सुनते –सुनते कंठस्थ हो गए होंगे. बाल बुद्धि थी. मन में अनेकों संशय उठते, कई प्रकार की जिज्ञासा होती कि सन्धा क्यों की जाए,इस से ईश्वर को क्या फर्क पड़ता है और मुझे भी क्या लाभ होगा,फिर संध्या इन्हीं मन्त्रों से ही क्यों की जाए. मन्त्रों के क्रम को ले कर भी अनेकों प्रश्न उठते परन्तु किसी से भी इन प्रश्नों का समाधान करने का साहस न जुटा पाती.समय की गाडी भी अपनी रफ्तार से पटरी पर सरकती गई.
ईश्वर कृपा से अध्यात्मिक चिंतन किया. ईश्वर दयालु हैं.उन की दया हर प्राणी मात्र पर बरस रही है. ईश्वर कृपालु भी हैं और मुझे अपनी कृपा का पात्र बना कर स्वाध्याय करने की प्रेरणा की और स्वाध्याय करने की रूचि उत्पन्न होते ही मैंने उन पुस्तकों को जिन में संध्या मन्त्रों के अर्थ हैं उन्हें पढ़ना शुरू किया. पंडित गंगाराम उपाध्याय जी की संध्या क्यों -कब कैसे,आचार्य विश्वश्रवा जी की संध्या पद्धति मीमांसा, पंडित युधिष्ठर जी मीमांसक की दैनिक यज्ञ पद्धति, स्वामी आत्मा नन्द जी की संध्या अष्टांग योग। स्वामी आत्मानंद जी वैदिक संध्या को अष्टांग योग इस लिए मानते हैं कि इस पद्धति से योग सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। वे लिखते हैं कि महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने हजारों वर्षों के पश्चात ईश्वर भक्ति के नाम पर भटक रहे हिन्दू समुदाय को प्रचीन वेद मार्ग पर लाने के लिए अनेक वैदिक ग्रंथों का मन्थन करने के अनन्तर उन्नीस मंत्रो की वैदिक संध्या का अष्टांग योग को आधार मानकर निर्माण किया। स्वामी आत्मानंद जी की संध्या अष्टांग योग से मेरी शंकाओं की ग्रंथियाँ सुलझने लगी और इस प्रकार अनेकों पुस्तकें जिन में संध्या के मन्त्रो के अर्थ होते, उन का रसास्वादन करना शुरू किया तो शंकाओं का समाधान स्वतः ही होता गया उदाहरण स्वरूप जीवन का उद्देश्य व संध्या के मन्त्रों के अर्थ समझ में आने लगे.
संध्या का प्रथम मंत्र ———–ओं शन्नो देवी ——–में दो सार गर्भित शब्द अभिष्टये और पीतये के अर्थों ने मुझे भाव विभोर कर दिया. संध्या का प्रारम्भ ही जीवन के उद्धेश्य से हुआ है और इसका क्रम पीतये की ओर बढ़ता है.अभीष्टये (लौकिक सिद्धि के लिए,मनोवांछित सुख )पीतये (पूर्णानन्द ,मोक्ष प्राप्ति के लिए )जीवन के उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति व पूर्ण सुख की प्राप्ति में अभीष्टये को साधन अपना कर ही पूर्ण हो सकता है,अन्यथा नहीं. यह उद्देश्य केवल एक व्यक्ति का नहीं,एक जाति वर्ग विशेष का नही अपितु पूरी मानव जाति का है.कार्य की सिद्धि के लिए उद्देश्य प्रथम मंत्र में ही होना चाहिए. मोक्ष साध्य है तो लौकिक सुख साधन है. यदि उद्देश्य ही सम्मुख नही रखा तो उद्देश्य की प्राप्ति में किए गए पुरुषार्थ निष्फल हो जाते हैं. अब संध्या के मंत्रों का क्रम और मंत्र ही क्यों मेरी अल्प बुद्धि में समझ आने पर ऋषि दयानन्द सरस्वती जी की विलक्षण बुद्धि के सामने मस्तक स्वतः ही नत मस्तक हो जाता है और ह्रदय से कोटिशः धन्यवाद निकलने लगता है.
संध्या के मंत्रों के क्रम को बढ़ाते हुए ” अथ समर्पण “जप उपासना और शुभ कर्मो को ईश्वर को समर्पित करके धर्मार्थकाममोक्षाणां की सिद्धि की प्रार्थना है.अभीष्ट अर्थात मनोवांछित सुख के लिए अर्थ का अर्जित करना है परन्तु अर्थ का धर्मानुसार,जीवन में सत्य और न्याय का पालन करते हुए ही करना है। अर्थ से इष्ट पदार्थों का सेवन अर्थात अपनी आवश्यकताओं से अधिक धन का व्यय अपव्यय माना जाता है.लोभ न करते हुए त्याग पूर्वक कामनाओ की सिद्धि ही धर्मानुसार होती है.
ऋषि दयानन्द जी की संध्या पद्धति की देन पूरी मानव जाति पर उपकार है. इसी पद्धति से ही मै मानव जाति का उद्देश्य ही नही अपितु मानव योनि में आने के उद्देश्य को समझ पा रही हूँ कि मोक्ष प्राप्ति अर्थात सब प्रकार के दुखों से छुट कर पूर्ण आनन्द में रहना. एतदर्थ प्रार्थना है ———सर्व कल्याण कारक प्रभो ! हमें अपनी कृपा का पात्र बना कर हम पर सुखों की वर्षा कीजिए.
ओउम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः
राज कुकरेजा /करनाल
Twitter @Raj Kukreja 16

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