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अंधभक्त नहीं, तार्किक बनें

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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अंध भक्त नहीं, तार्किक बनें

जब भी प्रशासन किसी बाबा के विरुद्ध कार्यवाई करने की कोशिश करती है तो लोगों की भीड़ दिवार बन कर प्रशासन को चुनौती देती है। उस समय बस एक ही सवाल कौंध रहा होता है कि आखिर कौन हैं ये लोग जो आसाराम बापू के जेल जाने पर उसके लिए बेसुध होकर रोते हैं, राम रहीम के लिए प्रशासन को चुनौती दे कर कुछ भी फूंकने को तैय्यार हैं, राधे मां का फाइव स्टार आशीर्वाद लेने वाले और राम पाल के लिए अपनी जान तक दे देने वाले।
अब कुछ जवाब भी समझ आ रहे है! ये सब वे अंधभक्त हैं जिनकी बुद्धि को बाबा लोगों द्वारा कुंठित कर दिया जाता है क्योंकि ये अंत्यत अंधश्रद्धालु होते हैं और इन्हें रटाया जाता है कि गुरु वचन परमेश्वर का वचन है और गुरु का स्थान कोई नहीं ले सकता। अक्ल के अंधे ये लोग सोचते नहीं हैं । इन्सान आंखों से अंधा हो तो उसकी बाकी ज्ञान इन्द्रियाँ ज़्यादा काम करने लगती हैं, लेकिन अक्ल के अंधों की कोई भी ज्ञान इंद्री काम नहीं करती।
अंधभक्त लोग सोचते नहीं हैं। ये अपने बाबा को भगवान समझते हैं| उनके चमत्कारों की सौ-सौ कहानियां सुनाते हैं, लेकिन जब इनके बाबा किसी अपराध में जेल जाते हैं तब वे कोई चमत्कार नहीं दिखाते, तब अंधभक्त बाबा के लिये लड़ते-मरते हैं, लेकिन वे कुछ सोचते नहीं हैं। अंधभक्त श्रद्धा से सुनते हैं पर सोचते नहीं हैं। बाबा जी को किसी भगवान पर विश्वास नहीं होता। बाबा जी Z सिक्योरिटी में बैठकर कहते हैं कि जीवन-मरण ऊपर वाले के हाथ में है| बाबा जी दौलत के ढेर पर बैठकर बोलते हैं कि मोह-माया छोड़ दो लेकिन अपने डेरों को अय्याशी के महल बनाते हैं व उत्तराधिकारी अपने बेटे को ही बनायेंगे।
भक्तों को लगता है कि उनके सारे मसले बाबा जी हल करते हैं, लेकिन जब बाबा जी मसलों में फंसते हैं, तब बाबा जी बड़े वकीलों की मदद लेते हैं। अंधभक्त बाबा जी के लिये दुखी होते हैं, भक्त बीमार होते हैं, डॉक्टर से दवा लेते हैं। जब ठीक हो जाते हैं तो कहते हैं, बाबा जी ने बचा लिया और जब बाबा जी बीमार होते हैं तो बड़े डॉक्टरों से महंगे हस्पतालों में इलाज़ करवाते हैं। अंधभक्त उनके ठीक होने की दुआ करते हैं ।
सूक्ष्मता से इनके जीवन पर दृष्टि डालें तो वास्तविक तथ्य पकड़ में आने लगते हैं। वास्तव मंर इन अंधभक्तों की इस भीड़ के मूल में दुःख है, अभाव है, गरीबी है, अविद्या है, अज्ञान है और शारीरिक व मानसिक शोषण हैा अंधविश्वास एक ऐसा विश्वास है जिस पर आडंबरों की फसल लहराती है। जरा ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि ऐसे भक्तों की संख्या में ज्यादा संख्या महिलाओं, गरीबों, दलितों और शोषितों की है। इनमें कोई अपने बेटे से परेशान है तो कोई अपनी बहू से, किसी का जमीन का झगड़ा चल रहा है तो किसी को कोर्ट-कचहरी के चक्कर में अपनी सारी जायदाद बेचनी पड़ी है। किसी को सन्तान चाहिये तो किसी को नौकरी। हर आदमी एक तलाश में है। ये भीड़ जिस तलाश में है वो धार्मिक तलाश नहीं है। ये भौतिक लोभ की आकांक्षा में उपजी प्रतिक्रिया है। जिसे स्वयं की तलाश होती है उसे भीड़ की जरूरत नहीं| उसे तो एकांत की जरूरत होती है। उसे किसी रामपाल, आसाराम, राम रहीम के पास नहीं, किसी आध्यात्मिक गुरु के पास जाना होता है। तब उसे पैसा, पद और प्रतिष्ठा के साथ भौतिक अभीप्साओं की जरूरत नहीं | न ही गंगा न ही ये साधू संत और न ही इनके मेले और झमेले।
उसे ज्ञान की जरुरत होती है।
गीता में भगवान कहते हैं –
न ही ज्ञानेन सदृशं पवित्रम
अर्थात ज्ञान के समान पवित्र और कुछ नहीं है।
लेकिन बड़ी बात ! आज ज्ञान की जरूरत किसे है ? चेतना के विकास के लिए कौन योग दर्शन पढ़ना चाहता है? वैदिक दर्शनाचार्यों, शुद्ध वैदिक सिद्धांतों के ज्ञाता विद्वानों के पास महज कुछ ही लोग जाते हैं । कितने सिद्ध महात्माओं को तो हम जानते तक नहीं जो चेतना को परिष्कृत करने, ध्यान करने और साधना करने की बातें करते हैं उन के यहां भीड़ कम होती है और जो नौकरी देने, सन्तान सुख देने और अमीर बनाने के सपने दिखाता है उसके यहाँ लोग टूट पड़ते हैँ। सत्य साईं बाबा के यहाँ नेताओं और बड़े-बड़े अधिकारियों की लाइन लगी रहती थी, क्योंकि वो हवा से घड़ी, सोने की चैन, सोने का शिवलिंग प्रगट कर देते थे, राख और शहद बांटते थे।
क्या ही आश्चर्य की बात है कि जिस साईं बाबा ने पूरा जीवन फकीरी में बिता दिया उसकी मूर्तियों के मुकुट पर स्वर्ण और हीरे जड़ें हैं। जिस बुद्ध ने धार्मिक आडम्बरों को बड़ा झटका दिया, संसार में उन्हीं की सबसे ज्यादा मूर्तियां हैं।
वास्तव में ये सब अन्धविश्वास एक दिन में पैदा नहीं होता, ये पूरा एक चक्र है। जरा ध्यान से टीवी देखिये, रेडियो सुनिये, तो हम क्या देख रहें हैं? क्या सुन रहें हैं? अन्धविश्वास ही तो देख रहें हैं। वही तो सुन रहे हैं- कोकाकोला से मन ठंडा होता है, फलां बनियान पहन लो लड़कियां तुम्हारे लिए सब कुछ कर देंगी, ये इत्र लगाओ तो लड़कियां तुम्हारे पर मर जाएंगी, इस कम्पनी की चड्ढी पहन लो तो गुंडे अपने आप भाग जाएंगे, ये पान मसाला खाओ स्वास्थ्य इतना ठीक रहेगा कि दिमाग खुल जाएगा।
इन सब मूर्खतापूर्ण विज्ञापनों पर रोक लगनी चाहिए तभी हम चाहे कोई आर्थिक बाजार हो या धार्मिक बाजार इससे बच सकतें हैं। ये तथाकथित धार्मिक गुरु (बाबा) परामर्शी होते हैं| ये ऐसा धार्मिक परामर्श करते हैं, जिससे आदमी का विवेक शून्य हो जाता है और व्यक्ति वही करने लगता है जो उस के अवचेतन में भर दिया जाता है।
आज आवश्यकता है जागरूकता की, विवेक पैदा करने की, तार्किक बनने की और उससे भी ज्यादा आवश्यक है सच्चे गुरु की पहचान जहां तत्व ज्ञान की प्राप्ति होती हो । वरना हम यूँ ही भटकते रहेंगे। ॠषिओं ने कहा है कि –
ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः अर्थात ज्ञान के बिना कोई मुक्ति नहीं है।
जो लोग कहते हैं कि धर्म का मार्ग कठिन है, वे भूल करते हैं । धर्म का मार्ग अति सरल और स्वाभाविक है । कठिन मार्ग अधर्म का है जिसके लिए षड्यंत्रों, कुटिल निश्चयों, टेढ़ी चालों और छल-छद्म के लिए तैयारियाँ करनी पड़ती हैं और उनको निभाना पड़ता है तथा प्रकट होने का भय दुःखदायक होता है । धर्म करने में इन सबकी आवश्यकता नहीं होती, न दुःख, न भय अपितु मन को शान्ति, आत्मा की प्रसन्नता तथा लोगों का प्यार सदा प्राप्त होता है । आजकल के अपराधियों की स्थिति हमारे सामने है । यह इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि अपराधी लोग हमेशा टेंशन में रहते हैं, सदा भयभीत रहते हैं, और कब दंड मिलेगा, इस खतरे से जूझते रहते हैं। सत्यवादी परोपकारी लोग भले ही गरीब हों, परंतु सदा निर्भय तथा आनंद में रहते हैं । अपने आस पड़ोस में किसी भी ईमानदार व्यक्ति को देख लें, वह इस बात का जीवित उदाहरण है।
महर्षि दयानंद आधुनिक भारत में एकमात्र ऐसे सत्पुरुष हुए हैं, जिन्होंने न अपना नाम लेने का कोई गुरुमंत्र दिया, न अपनी समाधी बनने दी, न ही अपने नाम से कोई मत-सम्प्रदाय चलाया। स्वामी दयानन्द जी ने प्राचीन काल से प्रतिपादित ऋषि-मुनियों द्वारा वर्णित, श्री राम और श्री कृष्ण सरीखे महापुरुषों द्वारा पोषित वैदिक धर्म को पुन: स्थापित किया।
उन्होंने अपना नाम नहीं अपितु ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ निज नाम ओ३म् का नाम लेना सिखाया। उन्होंने अपना मत नहीं अपितु श्रेष्ठ गुण-कर्म और स्वाभाव वाले अर्थात आर्यों को संगठित करने के लिए आर्यसमाज स्थापित किया। स्वामी दयानन्द का उद्देश्य केवल एक ही था “वेदों की ओर लौटो। वेदों के सत्य उपदेश से ही सब का कल्याण होगा।”
यही एक वैदिक मात्र मार्ग है। यही ढोंगी और नकली गुरुडम और डेरों की दुकानों को बंद करने का एकमात्र विकल्प है। ॠषि दयानंद सरस्वती जी की अमर कृति सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय अवश्य ही करें । इसी से ही अंधविश्वास के बादल छँटने लगते हैं और बुद्धि तार्किक बनती है।
ओ३म् शान्तिः शान्ति : शान्ति:
राज कुकरेजा \करनाल

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