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सत्यार्थ प्रकाश की प्रश्नोत्तरी-

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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सत्यार्थ प्रकाश की प्रश्नोत्तरी-
प्रश्न ( 1)
अनादि किसे कहते हैं? अनादि वस्तुओं के लक्षण संक्षेप में वर्णन करो।
उत्तर-
अनादि उसे कहते हैं जिसका आदि कोई कारण व समय न हो। अनादि वस्तुओं के लक्षण ये हैं कि जो न कभी उत्पन्न हुआ हो, जिसका कोई कारण न हो, जो सदा से स्वयं सिद्ध हो और सदा वर्तमान रहे। ईश्वर, जीव और प्रकृति ये तीन नित्य पदार्थ है, इसलिए अनादि हैं। इन तीनों में ईश्वर जगत का निमित्त कारण है, जीव साधारण निमित्त कारण और प्रकृति उपादान कारण हैं।तीन अनादि तत्त्व ब्रह्म, जीव और प्रकृति तीनों अनादि हैं- इसके प्रमाण वेद में हैं।
ये मन्त्र है –
बालादेकमणीयस्कमुतैकं नेव दृश्यते ।
ततः परिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया।।-(अथर्व० १०/८/२५)
अर्थ:-एक सूक्ष्म से सूक्ष्म है (यह आत्मा है); एक सूक्ष्म है परन्तु उसके रुप का अनुभव नहीं होता (यह प्रकृति है); इससे ऊपर एक व्यापक देवता है वह मुझे (अर्थात् भक्त को) प्रिय है (परमात्मा)।यहाँ दो को ससीम तथा एक को व्यापक कहा है।यहाँ ससीम तथा व्यापक,अनादि हैं क्योंकि निरवयव हैं।आरम्भ सदा सावयव(अवयवों वाला)का होता है और अत्यन्त सूक्ष्म तथा व्यापक, निरवयव होने के कारण अवयवों के मेल से नहीं बनते।यह जीव तथा प्रकृति के अनादि होने का वैज्ञानिक प्रमाण है।(साभार-‘अनादि तत्त्व’,चमूपति एम० ए०)

प्रश्न (2)
अनादि वस्तुओं के अन्तर और समानताएं स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर –
ईश्वर, जीव और प्रकृति ये तीनों पदार्थ स्वरूप से अनादि हैं । ईश्वर सत्, चित्त, आनंद स्वरूप वाला है, जीव सत् और चित स्वरूप वाला है और प्रकृत्ति सत् स्वरूप वाली है। जीव के नैमित्तिक गुण, कर्म स्वभाव भी होते हैं परन्तु ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव स्वाभाविक होते हैं। इस मंत्र से तीनों अनादि पदार्थों के अन्तर व समानताएँ स्पष्ट हो जाती हैं।
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ।।-(ऋग्वेद १/१६४/२०)
अर्थ -जो ब्रह्म और जीव दोनों चेतना और पालनादि गुणों से कुछ सदृश व्यापक-व्याप्य भाव से संयुक्त परस्पर मित्रतायुक्त, सनातन अनादि, और वैसा ही अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न-भिन्न हो जाता है, तीसरा अनादि पदार्थ है। इन तीनों के गुण, कर्म, स्वभाव भी अनादि हैं। जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस वृक्षरूप संसार में पापपुण्यरूप फलों को अच्छे प्रकार भोगता है और दूसरा परमात्मा कर्मो के फलों को न भोगता हुआ चारों ओर अर्थात भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप वाली है।
प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों कभी जन्म नहीं लेते, ये तीन सब जगत के कारण हैं इनका कारण कोई नहीं है। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फसता है और परमात्मा न इसमें फसता है और न इसका भोग करता है।

प्रश्न 3) ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना के क्या लाभ हैं?
उत्तर –
ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना से लाभ है कि हमें हमारे व्यावहारिक और पारमार्थिक कर्तव्य कर्म की सिद्धि में परमेश्वर की कृपादृष्टि और सहायता मिलती है, जिससे आत्मिक, मानसिक और शारीरिक बल बढ़ जाता है और महा कठिन कार्य भी सुगमता से सिद्ध हो जाते हैं। पहाड़ जैसे दु:ख को भी बिना विचलित हुए सहन करने की शक्ति मिलती है।जन्म-जन्म के कुसंस्कारों के कारण और राग, द्वेष, मोह के विकारों के कारण चित्त भूमि बंजर सी हो जाती है, इसलिए उस में ज्ञान के बीज उग नहीं पाते और न ही उसमें कोई परिवर्तन आ पाता है। इस बंजर भूमि को हरा-भरा और उपजाऊ बनाने के लिए ब्रह्म यज्ञ के संस्कार खाद पानी का काम करते हैं। ब्रह्म यज्ञ से समाधि लगा सकते हैं।आत्मा का और ईश्वर का साक्षातकार समाधि में होता है। जैसे हम भोजन खाते हैं, उस से शरीर को उर्जा व शक्ति मिलती है। इसी तरह से आत्मा को शक्ति देने के लिए ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना- उपासना आवश्यक है। ईश्वर से भी शक्ति मिलती है, यह आत्मा का भोजन है। जिस तरह थोड़ी सी औषधि भयंकर रोगों को शांत कर देती है, उसी तरह ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना बहुत से कष्ट और दुःखों का नाश कर देती है।
ईश्वर की स्तुति से ईश्वर में प्रीति बढ़ती है, उसके गुण, कर्म और स्वभाव से जीव के गुण, कर्म और स्वभाव सुधरते हैं। अर्थात ईश्वर के सदृश जीवात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहायता मिलती है।प्रार्थना व्यक्ति को आंतरिक संबल करती है, उसे कर्म की ओर उद्यत करने हेतु आंतरिक बल, उत्साह और आशा प्रदान करती है। प्रार्थना व्यक्ति के विचारों एवं इच्छाओं को सकारात्मक बना कर निराशा एवं नकारात्मक भावों को नष्ट करती है। उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षातकार होता है।
प्रश्न 4)
ईश्वर उपासना की सर्वोत्तम विधि क्या है?
उत्तर (4)-
ऋषि दयानंद जी कृत वैदिक संध्या ध्यान लगाने की सर्व श्रेष्ठ पद्धति है। पूज्य स्वामी आत्मानंद जी महाराज ने संध्या के इन गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन अष्टांग योग को आधार मानकर किया है। स्वामी जी संध्या अष्टांगयोग में लिखते हैं कि महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने हजारों वर्षों के पश्चात ईश्वर भक्ति के नाम पर भटक रही मानव जाति को प्रचीन वेद मार्ग पर लाने के लिए अनेक वैदिक ग्रंथों का मन्थन करने के अनन्तर उन्नीस मंत्रो की वैदिक संध्या का निर्माण ब्रह्म यज्ञ को सामने रखकर हम जैसे सामान्य जनों के लिए किया है। मन को स्थूल से सूक्ष्म की ओर लगाने में सुविधा होती है। शरीर स्थूल है, मन शरीर से सूक्ष्म है और ईश्वर मन से सूक्ष्म है। ध्यान लगाने की यही मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। संध्या ब्रह्म यज्ञ है। संध्या का अर्थ है ध्यान का उत्तम साधन। ध्यान ब्रह्म का ही किया जाता है। इस लिए संध्या को ब्रह्म की प्राप्ति का योग मार्ग भी कह सकते हैं
ईश्वर उपासना की सर्वोत्तम विधि अष्टांग योग भी है,।अष्टांग योग द्वारा ही पर ब्रह्म से मेल एवं उसका साक्षात्कार संभव है। ऋषि पतंजलि जी ने योग दर्शन शास्त्र में अष्टांग योग को ही ईश्वर की उपासना की सर्वोत्तम विधि माना है।अष्टांग योग से साधक की अविद्या आदि मल नष्ट हो जाते हैं। सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी परमात्मा का प्रत्यक्ष होता है और ऐसे समय अर्थात समाधि योग सेआत्मस्थ होकर सर्वव्यापक,सर्वान्तर्यामी परमात्मा में चित लग जाता है और परमात्मा के योग का सुख जो मिलता है वह वाणी से कहा नहीं जा सकता, क्योंकि उस आनंद को जीवात्मा अपने अन्त:करण से ग्रहण करता है।
वेदों में भी अष्टांग योग द्वारा ही ईश्वर की उपासना का उपदेश किया गया है ।अष्टांग योग जैसा कि नाम से विदित हो रहा है कि इस के आठ अंग हैं। (1)यम – और यम पांच है, (अहिंसा, सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) (2)नियम -, नियम पांच है (शौच, संतोष तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) (3)आसन (4)प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7)ध्यान (8)समाधि है। ऋषि दयानंद सरस्वती जी भी सत्यार्थ प्रकाश में अष्टांग योग को ही ईश्वर उपासना की सर्वोत्तम विधि मानते हैं।
प्रश्न 5)
मुक्ति की परिभाषा व उपाय संक्षेप में लिखो।
उत्तर –
मुक्ति का अर्थ है कि मनुष्य सब बुरे कामों और जन्म – मरणादि दु:ख सागर से छूट कर, सुख रूप परमेश्वर को प्राप्त होके सुख में रहना है, वह मुक्ति कहाती है।
मुक्ति के उपाय ये हैं कि ईश्वर के सच्चे स्वरूप को समझ कर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना को करना चाहिए तथा धर्म का आचरण करते हुए पुण्य कर्म, सतसंग, सत्य पुरुषों का संग परोपकार करना तथा सब अच्छे कार्यों का करना और सब दुष्ट कर्मों से अलग रहना है। इन कर्मों के साथ इन चार साधनों का अनुष्ठान करना चाहिए।
पहला विवेक – विवेक अर्थात सत्यासत्य, धर्माधर्म, कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निश्चय करना चाहिए। पृथ्वी से लेकर परमेश्वरपर्यन्त पदार्थों के गुण, कर्म और स्वभाव को जानना चाहिए।
दूसरा वैराग्य – वैराग्य से तात्पर्य है कि विवेक से सत्यासत्य आदि को जब समझ लिया तो सत्याचरण को ग्रहण कर लेना चाहिए और असत्याचरण को छोड़ देना चाहिए।
तीसरा षट्कर्म सम्पत्ति – षट् कर्म सम्पत्ति अर्थात छ: प्रकार के कर्म इसके अन्तर्गत करने होते हैं( एक शम – जिससे अपने आत्मा व अन्त:करण को अधर्म से हटा कर, धर्माचरण में सदा प्रवृत रखना। दूसरा दम – जिससे श्रोत्रादि इन्द्रियों और शरीर को व्यवभिचारादि बुरे कर्मों से हटा कर, जितेन्द्रियत्वादि शुभ कर्मों में प्रवृत रखना ।तीसरा उपरति ,- जिससे दुष्ट कर्म करने वाले पुरुषों से सदा दूर रहना । चौथा तितिक्षा – निन्दा-स्तुति, लाभ-हानि, मान-अपमान कितना ही क्यों न हो, परन्तु हर्ष-शोक को छोड़ मुक्ति साधनों में सदा लगे रहना। पाँचवा श्रद्धा – वेदादि सत्य शास्त्र और इन के बोध से पूर्ण आप्त विद्वान के वचनों पर विश्वास करना । छठा समाधान – चित्त की एकाग्रता)
चौथा मुमुक्षत्व – जैसे भूख और प्यास से व्याकुल व्यक्ति को अन्न व जल के कुछ भी अच्छा नहीं लगता ,वैसे बिना मुक्ति के दूसरे में प्रीति न होना अर्थात हर क्षण जीवन का उद्देश्य मुक्ति ही है, इस पर चिन्तन करते रहना चाहिए।इस प्रकार मुक्ति के उपाय करने से साधक मुक्ति का अधिकारी बनता है।
राज कुकरेजा/ करनाल
Twitter @Rajkukreja16

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